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आत्मविद्या से कर्मविमुक्ति
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भी संकटापन्न परिस्थिति से घबराता नहीं, वह विद्या के बल,से युग की नब्ज परख लेता है । वह यह जान लेता है कि युग की माँग क्या है ? विश्व की गतिविधि को वह बखूबी जान लेता है। विद्यावान् बहुत शीघ्र जान लेता है कि कौन-सा कार्य या विचार हेय है, कौन-सा उपादेय है और कौन-सा ज्ञेय है ? कौन-सा कृत्य धर्म है, कौन-सा अधर्म है ? अपना कर्तव्य या दायित्व क्या है ? इस बात को विद्यावान् जान लेता है। जीवन में आने वाली विपत्ति और सम्पत्ति के क्षणों में विषाद ओर हर्षावेश से युक्त नहीं होता। नोतिकार कहते हैं
परिच्छेदो हि पांडित्यं यदाऽपन्ना विपत्तयः । अपरिच्छेद-कर्तृणं विपदः स्युः पदे-पदे ॥
जब विपत्तियाँ आती हैं, तब उनके साधक-बाधकों का विश्लेषण करना ही पांडित्य-विद्यावत्ता है, किन्तु जो ऐसे समय में विवेक करना नहीं जानते, उनके पद-पद पर विपत्तियाँ आती हैं।
विद्यावान् व्यक्ति धर्म के सम्बन्ध में कदाचित् उलझन आ जाय तो शान्त चित्त होकर चिन्तन करता है, उसमें से निकलने का रास्ता निकाल लेता है, जबकि अविद्यावान् धर्म की बात को सुनता ही नहीं, कदाचित् सुन ले तो उस पर अमल नहीं करता। अविद्यावान् व्यक्ति हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य, धर्माधर्म आदि का विवेक नहीं कर पाता। वह न तो हेय-ज्ञयउपादेय का विवेक कर पाता है और न अपने आत्मिक लाभ-अलाभ की सोचता है । वह सुन्दर और मनोज्ञ प्रतीत होने वाले, किन्तु परिणाम में घोर दुःखदायो विषय-भोगों को सुख कारक मानता है, किन्तु उन्हीं विषयभोगों में फंसकर वह इस जन्म में ही नहीं, जन्म-जन्मान्तर में विषय-भोगों का दास बनकर दुःख पाता है। खूबी यह है कि अविद्या से ओतप्रोत जन सुख के वेष में आये हुए दुःख को सुखरूप समझते हैं। वे हेय-ज्ञयादि विवेक से रहित होने के कारण हर वस्तु को प्रायः विपरीत रूप में ग्रहण करके दुःख पाते हैं। यही कारण है कि इष्ट वस्तु या विषय के संयोग के समय वे हर्षावेश में आ जाते हैं, तथा अनिष्ट के संयोग में झुझला उठते हैं. सहनशीलता नहीं रख पाते। अपने अज्ञान के कारण अविद्यावान् पुरुष पद-पव पर दुखी होता रहता है । वह इष्ट वस्तु की प्राप्ति, रक्षा, वियोग इन सभी में जान-बूझकर दुःखी होता है। दुःख आता नहीं, वह उसे जानकर न्यौता देता है । भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था