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महानता का मूल : इन्द्रिय-विजय | २१७ किन्तु स्वयं इन्द्रियों के अधीन है, इन्द्रियों का दास है। एक रूपक कथा के द्वारा इसका रहस्य समझा दू
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एक बार राजमार्ग पर पिता और पुत्र जा रहे थे । उसी समय राजा की सवारी वहाँ से निकली । राजा के साथ छह सिपाही थे । जिज्ञासावश पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! यह कौन जा रहा है ?"
पिता बोले - " राजा जा रहे हैं, बेटा !"
थोड़ी ही देर बाद एक चोर को पकड़ कर राज्य के ६ सिपाही लिये रहे थे । पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! यह कौन है ?"
पिता ने कहा - "यह चोर है बेटा !"
यह सुनकर पुत्र को आश्चर्य हुआ । उसने पिता से पूछा - " पहले भी एक आदमी जा रहा था, उसके साथ भी ६ सिपाही थे और इसके साथ भी ६ सिपाही हैं । किन्तु आपने पहले जाने वाले को राजा, और पीछे जाने वाले को चोर कहा, ऐसा क्यों ? कुछ समझ में नहीं आया ।"
पिता ने कहा - "बेटा ! इन दोनों में बहुत अन्तर है ।"
पुत्र बोला - " किस बात का ? ठाट-बाट का, कपड़ों का या और कुछ अन्तर है ?"
पिता ने कहा - " ऐसा कोई फर्क महत्व का नहीं है । यहाँ फर्क दूसरा ही है । पहले जिस आदमी के साथ ६ सिपाही थे वे उसके अधीन थे । जबकि पीछे वाला ६ सिपाहियों के अधीन था। पहले वाला शासनकर्त्ता था, जबकि पीछे वाला शासित - गुलाम था । "
इसे आध्यात्मिक दृष्टि से यों घटित किया जा सकता है । ६ सिपाहियों के समान ६ इन्द्रियाँ हैं— श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियाँ और छठा नो-इन्द्रिय मन । इन्द्रियों पर शासन करने वाला जितेन्द्रिय पुरुष, इन ६ इन्द्रियों पर शासन करता है, इन्हें जीत लेता है । जैसा कि मनुस्मृति (२/१८) में कहा है
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श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञयो जितेन्द्रियः ॥
जिस मनुष्य को निन्दा - स्तुति सुनकर, सुखद दुखद स्पर्श को छूकर, सुरूप - कुरूप को देखकर, सरस-नीरस वस्तु को खाकर एवं सुगन्ध दुर्गन्ध को सूकर भी हर्ष -विषाद नहीं होता, जो मन को शान्त - प्रशान्त रखता है, उसे जितेन्द्रिय समझना चाहिये ।