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दुःखदायी सुखों से सावधान ! २१५
निष्कर्ष
बन्धुओ !
fron यह है कि आत्मा भोग- वासनाजन्य दुःखबीज सुख को एकांत सुखरूप समझकर अपनाता है, उससे भयंकर पापकर्म का बन्धन होता है, फिर जन्म परम्परा दीर्घकाल तक चलती है । अतः जन्म और कर्म की परम्परा को समाप्त करना है, तो इन्हें जड़मूल से समाप्त करने चाहिए । जब तक आत्मा के साथ कर्म का साहचर्य रहेगा, तब तक आत्मा विभावदशा में भटकता रहेगा, कर्म का साहचर्य - कर्मों का ग्रहण, बन्द करते ही वह स्वभाव में स्थित हो जायेगा । अतः दुःखों से सर्वथा मुक्त होने के लिए उनके मूल - कर्मों को सर्वथा समाप्त करना चाहिए । यही मधुराज ऋषि का तात्पर्य है ।