________________
२१४ अमरदीप
अर्थात्-पत्थर की चोट खाया हुआ कुत्ता पत्थर को ही काटने दौड़ता है, किन्तु जब सिंह को बाण लगता है, तो वह बाण को छोड़कर बाण के उत्पत्ति (छूटे हुए) स्थल पर झपटता है। इसी प्रकार अज्ञानी आत्मा दुःख आने पर बाहरी वस्तु (निमित्त) पर आक्रोश करता है, किन्तु सिंह के समान दुःखोत्पत्ति के मूल को नष्ट करने का प्रयास नहीं करता । २०-२१ ।
वण, अग्नि और कषाय तथा अन्यान्य दुष्कर्मों को करके बीमारियों को ढोते हुए व्यक्ति प्रचुर दुःख पाते हैं । २२॥
___अग्नि चार प्रकार की है—ऋण की आग, कर्म की आग, रोग की आग और वन की आग। (ये चारों ही दुःख देने वाली हैं; अतः इन चारों ही) दु:खों की जड़ को पूर्णरूप से नष्ट कर देनी चाहिए। क्योंकि ऊपर से काट डालने पर वृक्ष फिर से उग आता है । (इसलिए चारों दुःखों को जड़ मूल से उखाड़ फेंकना चाहिए ।) ।२३।
राख से ढकी हुई अग्नि और निगूढ़ क्रोधी शत्रु जैसे छिपकर घात करता है, उसी प्रकार पापकर्म में दुःख की परम्परा और संकट छिपे रहते हैं ।२४।
__ अग्नि को प्रचूर ईंधन प्राप्त हो जाता है, विष जब उत्कट (उद्दाम) हो जाता है, और कर्म जब मिथ्यात्व में प्रवेश करता है, तो ये तीनों प्रचण्ड और उद्दीप्त हो जाते हैं । इस अभिवृद्धि का परिणाम आत्मा के लिए दुःखरूप ही होता है ।२५॥
जैसे धूमहीन अग्नि, नया लेना बंद कर दिया हो, ऐसा ऋण और मंत्राहत विष निश्चित ही समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार, कर्म का आदान (ग्रहण या आस्रव) जब समाप्त हो जाता है, तब कर्म भी निर्जरित (क्षय) हो जाता है। जैसे सूर्य की प्रखर किरणों से पानी गर्म हो जाता है, किन्तु सूर्य किरणों का साहचर्य (संयोग) छूटते ही वह प्रकृतिस्थ होकर स्वाभाविक रूप से शीतल हो जाता है। इसी प्रकार कर्म के संयोग से आत्मा विभावदशा में आकुल होकर परिभ्रमण करता है। किन्तु कर्म का साहचर्य छूटते ही वह स्वभाव में स्थित होकर सहज रूप को प्राप्त कर लेता है ।२६-२७।
अतः साधक सभी दुःखों के जड़मूल को उसी प्रकार विनष्ट करे, जिस प्रकार सपेरा सर्प के.विष-दोष को नष्ट कर देता है ।२८।