Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 237
________________ २१२ अमरदीप पापपरम्परा सुरसा के मुंह की भाँति बढ़ती ही जाती है, वह एक ऐसा कर्जदार है, जो कर्ज तो लेता ही जाता है, परन्तु चुकाता उसका दशांश भी नहीं है, कर्ज पुनः पुनः बढ़ता ही जाता है, ऐसी स्थिति में वह ऋणमुक्त कैसे हो सकता है ? वर्तमान सूख पर ही प्रायः उसकी दृष्टि होती है, परन्तु उस सुख के साथ बंधी हुई दु:ख की परम्परा को नहीं देखते । उनकी दशा वैसी ही हो जाती है, जैसे सिर्फ आटे की गोली को निगलने वाली मछली गला बींधने के कष्ट को नहीं देख पाती। परन्तु दूसरों के लिए किये जाने वाले पाप कर्म को दूसरा नहीं भोग कर स्वयं को ही भोगना पड़ता है, ईश्वर या कोई शक्ति उसमें रियायत नहीं कर सकती, न ही उसके बदले दूसरा कोई उस पाप कर्म का फल भोग सकता है । इसी सिद्धान्त को मधुराज ऋषि के शब्दों में देखिये आताकडाण कम्माणं, आता भुजति जं फलं । तम्हा आतस्स अट्ठाए, पावमादाय वज्जए ॥१७॥ अर्थात्-अपने द्वारा किये हुए कर्मों का फल स्वयं (आत्मा) ही मनुष्य भोगता है। अतः साधक आत्मा के अभ्युदय के लिए पापकर्मों को छोड़ दे। आत्मा ही स्वयं कर्मों का कर्ता है, स्वयं ही कर्मबन्ध करता है और उसका फल भी स्वयं हो (आत्मा) भोगता है। विश्व की. कोई भी शक्ति दूसरे को उसके कर्म से मुक्त नहीं कर सकती और न ही एक के बदले में दूसरी आत्मा कर्मबन्ध कर सकती है। जन्म समाप्त होते ही कर्मफलरूप दुःख समाप्त अब मधुराज ऋषि जन्म के साथ नाना दुःखों का सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं--- संते जम्मे पसूयंति वाहि-सोग- जरादओ। नासंते डहते वण्ही; तरच्छेत्ता ण छिदति ॥१८॥ दुक्खं जरा य मच्चू य, सोगो माणावमाणणा। जम्मघाते हता होंति, पुप्फघाते जहा फलं ॥१६॥ जन्म के सद्भाव में (होने पर) व्याधि, शोक और बुढ़ापा आदि उपाधियाँ पैदा होती हैं। जन्म का अभाव होने पर समस्त उपाधियाँ नष्ट हो जाती हैं। आग में जलाने योग्य वस्तु का अभाव हो तो आग किसे जलाएगी ? अथवा आग का अभाव है तो वह ईंधन को कैसे जलाएगी ? यदि

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