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दुःखदायी सुखों से सावधान | २१३
वृक्ष काटने वाले का अभाव है, तो अकेली कुल्हाड़ी वृक्ष को नहीं काट सकेगी।
तात्पर्य यह है कि यदि जन्म-जन्य उपाधियों से बचना है तो जन्म से ही बचना होगा । आदमी जन्म को तो खुशी से अपनाता है, किन्तु मौत से है | यदि मौत से बचना है तो जन्म से ही बचना होगा । जहाँ जन्म है, वहाँ मृत्यु अवश्यम्भावी है ।
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fron यह है कि अगर आत्मा सरागवृत्ति से हट जाए और वीतरागदशा प्राप्त कर ले तो जन्म भी समाप्त हो जाएगा, और जन्म से होने वाली व्याधि, जरा, मृत्यु आदि उपाधियाँ भी समाप्त हो जायेंगीं । क्योंकि मृत्यु, जरा, व्याधि, मानापमान, दरिद्रता, अंगविकलता, बुद्धिमन्दता आदि सब दुःख जन्म के पैर से बँधे हुए हैं । 'न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी' इस कहावत के अनुसार जन्म ही नहीं रहेगा तो ये सब दुःख भी नहीं रहेंगे । दुःख आने पर अन्य दुःखों को उत्पन्न करने वाले
मधुराज ऋषि उन अज्ञानी आत्माओं की मनोदशा का वर्णन करते हैं, जो दुःख आ पड़ने पर अन्य नाना दुःखों को आमन्त्रण देते हैं
पत्थरेणाहतो कीवो, मिगारी ऊसर पप्प, तहा बालो दुही वत्युं दुक्खुप्पत्ति-विणासं तु वह कसाय अणं जं वावि आमगं च. उध्वहंता, दुक्खं पार्वति पीवरं ॥ २२॥
खिष्पं डसइ सरूपत्त व बाहिर जिंदतो मिगारि व्व ण
दुट्ठितं ।
पत्थरं ।
मग्गति ॥ २० ॥
भिसं ।
पप्पति ॥ २१ ॥
वही अणस्स कम्मस्स, आमकस्स वणस्स य ।
निस्सेसं घायिणं सेयो, छिण्णो वि रुहती दुमो ||२३|| भासच्छण्णो जहा वही, गूढकोहो जहा रिपू । पावकम्म तहा लोणं, पतिधणस्स वहिस्स, मिच्छत्ते यावि कम्मस्स, धूमहीणो य जो वण्ही, मंताहतं विसं जं ति, छिण्णादाणं धुवं कम्म आदित्त रहिस-तत्त व तम्हा उ सध्वदुक्खाणं, कुज्जा मूलविणासणं । वालग्गाहिं व्व सप्पस्स,
दुक्खसंताण संकडं ॥२४॥ उद्दामस्स विसस्स य । दित्ता वुड्ढी दुहावहा ||२५|| छिण्णादाणं च जं अणं । धुवं तं खवमिच्छती ||२६|| झिज्जते तं तहाहतं । छिण्णादाणं जहा जलं ||२७||
विसदोस विणासणं ॥ २८ ॥