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अमरदीप
जड़ हैं, उन्हें तो आत्मा या मन जिधर मोड़ेंगे उधर ही मुड़ेगी, फिर इन्द्रियों को वश में करने पर इतना जोर क्यों दिया जाता है ? इन्द्रिय-विषयों का ( राग-द्वेषपूर्वक) सेवन करने से क्या हानि है ? मनुष्य जन्म में पाँचों इन्द्रियाँ मिली हैं तो उनसे आनन्द क्यों न प्राप्त किया जाये ?
ये ऐसे प्रश्न हैं, जो वर्तमान में भोगपरायण पाश्चात्य देशों एवं एवं पौर्वात्य देशों के नास्तिक या भोगवादी लोगों के द्वारा उठाये जाते हैं । परन्तु यह तो निश्चित है कि इन्द्रियों को बार-बार विषयों की ओर दौड़ाने से उन उन इन्द्रियों की शक्ति, तेजस्विता एवं तीव्रता समाप्त होती है । आँख के द्वारा तेज रोशनी, सिनेमा आदि के अत्यधिक देखने से आँखों की रोशनी तो क्षीण होती ही है, मानसिक कामविकार के कारण ब्रह्मचर्य भी स्खलित होता है एवं बौद्धिक मंदता आदि भी बढ़ती है ।
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हमें एक शहर में एक लड़का मिला। जो प्रतिदिन सिनेमा देखता था । उसके पिता ने बताया कि यह लड़का प्रतिदिन सिनेमा देखता है, इस कारण दिन भर सुस्ती में पड़ा रहता है, कमजोर भी हो रहा है । फिर आँखें अंदर धंसी हुई हैं, गाल पिचके हुए हैं, टाँगें पतली हैं, लड़खड़ाता हुआ चलता है ।
यह तो हुआ शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक नुकसान । इन्द्रियों के अत्यधिक उपयोग से शारीरिक हानि ही नहीं, प्राणों से भी हाथ धोता पड़ता है । शब्द, रस, गंध और स्पर्श के भी अत्यधिक के उपभोग से कम हानि नहीं है ।
शब्द में आसक्ति के कारण मृग शिकारियों द्वारा मार डाला जाता है।
रूप में आसक्त जीव भी अपने प्राणों तक से हाथ धो बैठते हैं। पारस्परिक कलह, वैमनस्य, बेइज्जती, कारागार, कठोर दण्ड आदि शारीरिक हानियाँ भी उठानी पड़ती हैं।
गंध में आसक्त होकर भौंरा कमलकोष में बंद हो जाता है। मछली आटे की गोली के स्वाद में पड़कर अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है । स्पर्शेन्द्रिय के वश होकर हाथी जैसा शक्तिशाली प्राणी भी बन्धन में बाँध लिया जाता है ।
इसी प्रकार मनुष्य भी इन इन्द्रियों का दुरुपयोग या अधिक विषयो - पभोग करके अपने स्वास्थ्य, सत्त्व, प्राणशक्ति, मनःशक्ति, शारीरिक शक्ति, fat क्षमता आदि को खो बैठता है ।