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महानता का मूल : इन्द्रियविजय | २२७
आज्ञा का चिन्तन करना चाहिए कि रागद्वेष- विजेता जिन भगवान् का इस विषय में क्या आदेश है ? मैं रागादि के जय के लिए चला हूं तो मुझे उनकी आज्ञा माननी चाहिए । जिनाज्ञा-चिन्तन से स्वच्छन्दता मिटेगी । साथ ही बार-बार विषयों का सेवन न करने का संकल्प करना चाहिए, ताकि साधना पक्की हो जाए !
दूसरा उपाय है - एकत्वानुभूति को तोड़ना - विषयसुखों के साथ होने वाली आत्मा की एकत्वानुभूति स्मृति को तोड़ डालना चाहिए, क्योंकि विषय जड़ हैं, वे चैतन्य के साथ एकरूप हो नहीं सकते। यह एकत्वानुभूति भ्रान्ति है ।
तीसरा उपाय है - चार शरणों का ग्रहण - यह भी इन्द्रियजय के लिए अमोघ उपाय है ।
चौथा उपाय है- आलोचना - निन्दना गर्हणा - असावधानी से यदि इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त हो गई हों तो मिथ्यादुष्कृत, आलोचना, आत्मनिन्दा, गर्हा आदि के अभ्यास से उन्हें वापस हटाना, आत्मा की सेवा में लगाना । दोष परिहार और शुद्ध चेतना का स्वीकार ।
पाँचवाँ उपाय है - इन्द्रियविजेता महात्माओं के सुकृत की अनुमोदना
करना ।
छठा उपाय है - प्रक्षा साधना - एक आसन पर स्थिर होकर बैठ जाना और इन्द्रियाँ (इन्द्रिय- प्रेरित मन ) को देखते रहना कि वे कहाँ-कहाँ जाती हैं ? उन्हें विषयों से अलग न करके केवल उपयोग को मोड़कर अन्तर्मुख करना । ऐसा करने से इन्द्रियाँ स्वयं थककर विषयों से स्वतः निवृत्त हो जाती हैं | पदार्थ को देखना और जानना मात्र कर्मबन्धन का हेतु नहीं है | चूँकि आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है। ज्ञान दर्शन बन्ध का हेतु नहीं होता । किन्तु जानने देखने के साथ ही यह विकल्प करना कि यह सुन्दर है, यह असुन्दर हैं यही राग और द्व ेष का अनुभव करना कर्मबंध का कारण है । प्रेक्षासाधना में केवल ज्ञाता द्रष्टा बनकर रहना है । परन्तु अपने उपयोग का मन और इन्द्रियों से अलग करने में सावधानी अपेक्षित है ।
सातवाँ उपाय है- आत्मा को शयन और प्रमाद से दूर रखना - स्वामी सोया रहे तो नौकर स्वच्छन्द हो जाते हैं । इसी तरह आत्मा सोया रहेगा तो इन्द्रियों का जोर चलेगा, वे उच्छ खल हो जायेंगी । अतः आत्मा को जागृत और इन्द्रियों को सुलाये रखना अभीष्ट है । इन्द्रियों का शयन हैविषयों में रसहीन होना और स्वामी (आत्मा) के अधीन होना । आत्मा की