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२३० अमरदोष
इसी तथ्य का समर्थन करते हुए अर्हतषि सोरियायन कहते हैं
दुदन्ता इंदिया पंच, संसाराए सरीरिणं । ते चैव नियमिया संता, णिज्जाणाए भवंति हि ॥ १ ॥
देहधारियों की दुर्दान्त बनी हुई जो पांचों इन्द्रियाँ संसार की हेतु बनती हैं, वे ही संवृत - नियंत्रित होने पर मोक्ष की हेतु बन जाती हैं ।
वस्तुतः देखा जाए तो इन्द्रियाँ अपने आप में जड़ हैं, वे न तो संसार की हेतु हैं, और न ही मोक्ष की हेतु । उनके पीछे रही हुई शुभ-अशुभ भावना, या संयम असंयम की वृत्ति प्रवृत्ति ही मोक्ष और संसार की हेतु होती है । जैसा कि भगवद्गीता ( ३।३४) में कहा है
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक इन्द्रिय और उसके अर्थ (विषय) में जो राग और द्वेष निहित हैं, उन दोनों के वशीभूत न हो, क्योंकि ये दोनों ही आत्मविकास के मार्ग में विघ्न करने वाले प्रबल शत्रु हैं ।
fron यह है कि जब आत्मा इन्द्रियों पर शासन करता है, तब वे मोक्षहेतु बनती हैं और जब इन्द्रियाँ आत्मा पर शासन करती हैं, तब वे संसारहेतुक बनती हैं। अपनी आन्तरिक निर्मलता - रागद्वेष से निर्लिप्तता बनाये रखने से इन्द्रियाँ स्वतः संयमित होने लगती हैं । इस व्यवस्था का आधार है इन्द्रियों को सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र रूप मोक्षमार्ग में लगाये रखना |
इन्द्रियों को यथास्थान जोड़ना ही अभीष्ट
अतः इन्द्रियाँ हमारी शत्रु नहीं, सेवक हैं, साध्य प्राप्ति के लिए सहायक साधन हैं । ये साधना के मार्ग पर चलने में सहायक एवं सेवक हैं; बशर्ते कि इन्हें यथास्थान इनके अनुरूप कार्य में जोड दें ! आत्मा पदार्थों के विषय में परोक्षज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से ही करता है । अगर इन्द्रियाँ न हों तो
शब्द, रूप, रस, गंध एव स्पर्श का ज्ञान कैसे होगा ? जितना भी परोक्ष ज्ञान है. वह सब इन्द्रियों एवं मनो-इन्द्रिय के सहयोग से आत्मा को मिलता है । इसी तथ्य को उजागर करते हुए महर्षि कहते हैं
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वही सरीरमाहारं जहा जोएण जुजती । इन्दियाणि य जोए य, तहा जोगे वियाणसु || ३ ||