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२२६ अमरदीप
विषयों में दोष प्रतीति के लिए इन पांच भावनाओं का भी चिन्तन करना आवश्यक है ।
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(१) दुःखत्वभावना - हे आत्मन् ! विषयों में सुख नहीं है । विषय दुःखरूप ही हैं । उनमें सुखानुभव भ्रान्ति है क्योकि विषयों के सेवन से पूर्व, सेवन करते समय और सेवन के बाद आकुलता बनी रहती है, जो दुःखरूप ही है । विषय सेवन से कई शारीरिक-मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं। एकएक विषय के सेवन से मृग, पतंगा, भुजंग, मत्स्य और हाथी दुःखी हो जाते हैं, मर जाते हैं । विषयसेवन हिंसादि कई पापों की खान है ।
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(२) उच्छिष्टता- भावना - हे आत्मन् ! तू जिन विषयों का सेवन कर रहा है, यह अनन्त जीवों की जूठन है, तेरी अपनी भी जूठन हं । अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी होकर तू जूठन के सेवन में सुख मान रहा है । पराई जूठन खाना निन्द्यकर्म है ।
(३) असारता भावना - हे आत्मन् ! ये विषयसुख असार हैं, क्षणिक हैं, विकृति के भण्डार हैं। एक क्षण पहले जो विषय आकर्षक लगते हैं वे ही क्षणभर बाद घृणित हो जाते हैं । इनका आकर्षण भी भ्रान्त है ।
(४) अतृप्ति - भावना - हे जीव ! विषयों से जीव को कभी तृप्ति नहीं होती । इन्द्रियों की प्यास विषयों के सेवन से अधिकाधिक भड़कती है । ज्यों-ज्यों विषयों का सेवन, त्यों-त्यों तृष्णा की तीव्रता, अतृप्ति की आकुलता जीव को विक्षिप्त बना देती है ।
(५) पुनरावृत्ति - भावना - हे जीव ! एक ही बात की बार-बार आवृत्ति मनुष्य को उबा देती है, तब विषयों की बार-बार आवृत्ति तुम्हें क्यों नहीं उबाती ? कौन सा ऐसा भव है, जिसमें तुमने विषयों का बार-बार सेवन नहीं किया ? इसी भव में उन्हीं उन्हीं विषयों का बार-बार सेवन किया है। अब इस भव में तो समझदारीपूर्वक इन्हें छोड़ !
इसी प्रकार विषयों की अनित्यता, आस्रवरूपता, अशुचिता आदि भावनाओं का चिन्तन भी विरक्ति को सुदृढ़ बनाता है ।
इन्द्रियविजय के अन्य उपाय
इन्द्रियविजय के कुछ उपाय मैं बता चुका हूं। उनके अतिरिक्त कुछ उपाय और भी हैं। पहला उपाय है - जिनाज्ञा- चिन्तन और आत्मा को आदेश'प्रदान - इन्द्रियों को विषयों में रमण अनुकूल लगता है, अतः जब साधक देखे किं इन्द्रियाँ विषयों में उच्छ खल हो रही हैं, तब तत्काल उन्हें वहाँ से खींच ले । ऐसा करने के लिए आत्मा में एकाग्र बनना और प्रत्येक प्रवृत्ति में जिन