________________
२२४ अमरदीप महा-समाधि चाहता है तो अपनी इन्द्रियों को जीतने का पूर्ण पराक्रम भरे पौरुष का उपयोग कर। इन्द्रिय अनिग्रह के तीन स्तर
इस अध्ययन से सोरियायन महर्षि ने आत्मार्थी साधक को इन्द्रियों के विषय-प्रवाह में न बहने का संकेत किया है। साधक तीन प्रकार से विषय प्रवाह में बहता है
(१) विषयों के न होने पर भी उनकी आसक्ति से । (२) इन्द्रियाँ चपल हो जाने से विषयों में बाह्य रूप से प्रवृत्त होने से । (३ विषयों के प्रति राग अथवा द्वेष होने से।
दूसरे शब्दों में इन्हें विषयासक्ति, विषय-प्रवृत्ति और विषय-विकृति कह सकते हैं । ये तीनों स्तर इन्द्रिय-अनिग्रह के हैं। इन्द्रिय-निग्रह के चार प्रकार
इन्द्रिय-निरोध के चार प्रकार हैं-(१) सिर्फ विषयों में आसक्ति का त्याग, (२) विषयों में प्रवृत्त न होना (अर्थात्-सिर्फ दूर रहना), (३) विषयों में प्रवृत्त होती हुई इन्द्रियों को वहाँ से हटा देना, और (४) विषयप्रवृत्ति में होती राग-द्वषरूप विकृति को उदित न होने देना, उदित विकृति को रोकना। इन्द्रिय-विजय का वास्तविक अर्थ
इन्द्रिय-विजय का अर्थ इन्द्रियों को बंद करके या गठड़ी बाँधकर रख देना नहीं है, अपितु इन्द्रियों पर संयम और सावधानी रखना है । इन्द्रियाँ जब भी विषयों की ओर दौड़े, तब उन्हें सावधानी से संभाला जाए, देखभाल रखी जाए। इन्द्रियनिग्रह में सावधानी
___ अनियन्त्रित इन्द्रियाँ प्रबल अन्धड़ के समान हैं, वे ज्ञान-विज्ञान के दीपक को बुझा न दें, इसका पूरा ध्यान रखना है । विषयों के प्रति रागद्वष में स्वच्छन्द विचरण करती हुई इन्द्रियाँ विचार एवं विवेक से थोड़ीसी देर के लिए नियंत्रण में रखी जा सकती हैं। इतना करने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रियाँ आपके वश में हो गईं। अनुकूल परिस्थिति या संयोग मिलते ही उनमें पुनः प्रबल उत्तेजना उठे बिना नहीं रहती। ऐसी स्थिति में विचार शक्ति कुण्ठित हो जाती है। विद्वान् कहे जाने वाले लोग भी बलात् उन दुर्विषयों से जनित दुष्कर्मों की ओर खिंच जाते हैं। अतः विचार, विवेक, प्रबल इच्छाशक्ति, दृढ़वैराग्य, दीर्घकालीन अभ्यास, इन्द्रियविजय के प्रति पूर्ण श्रद्धा, जितेन्द्रिय का आदर्श आदि निरन्तर समक्ष न हो, तब तक यह खतरा उपस्थित हो सकता है।