________________
२२० अमरदीप
उसे इस प्रकार ललकारने वाला यह कौन पैदा हुआ है ? इस प्रकार आश्चर्य - afed और प्रभावित सिकंदर स्वयं ही जैन साधु से मिलने के लिए पहुंचा । जैन मुनि की सौम्य एवं प्रसन्नमुद्रा देखकर तथा धर्मलाभ की प्रेरणात्मक वाणी सुनकर सिकन्दर भावविभोर हो गया । उसने कहा- "ओ महान् सन्त ! आप मेरे साथ पधारिये । मैं अत्यन्त सम्मानपूर्वक आपको अपने देश में ले जाऊँगा । विजय यात्रा के लिए प्रस्थान करते समय मेरे गुरु अरिस्टोटल ने एक जैन साधु को ले आने की माँग की थी। अतः आप पधारिये । सुन्दर वाहन, भव्य महल, सुरम्य उपवन, हीरा माणक मोती आदि कीमती से कीमती वस्तु आपकी सेवा में हाजिर कर दूँगा । परन्तु आप मेरे साथ पधारिये । "
सिकन्दर समझता था कि शायद प्रलोभन देने से संत पिघल जाएगा । परन्तु जिसकी इन्द्रियों और मन का वेग विषयों की ओर जरा भी नहीं दौड़ता, ऐसा जितेन्द्रिय मुनिभला सिकन्दर के इस प्रलोभन के वश में कैसे हो सकता था ? उसने सिकन्दर को मुनिधर्म का मर्म समझाया तथा धन, वाहन, वैभव, वनिता आदि का त्याग तथा मौलिक मर्यादाएँ बताईं और अपने धर्मक्ष ेत्र एवं कार्यक्षेत्र को छोड़कर वहाँ न जाने का अपना दृढ़निश्चय भी प्रगट किया ।
परन्तु सत्ता के गर्व में चूर सिकंदर ने भय बताया, धमकियाँ दीं, मारने के लिए तलवार भी उठाई । परन्तु संत की निर्भीक, आत्मा की अमरता की सन्देशवाहक वाणी सुनकर वह स्वयं स्तब्ध हो गया । वह पराजित होकर संत के चरणों में झुक गया ।
यह थी इन्द्रियविजेता की तथाकथित विश्वविजेता के हृदय पर विजय ।
जिसने इन्द्रियविषयों को जीतकर आत्मस्वरूप में रमणता प्राप्त कर ली है, वह मृत्यु से या किसी भी प्रकार के भय से जरा भी कंपित नहीं होता । इसलिए सिकन्दर को कहना पड़ा
जगत् को जीतने वाले की अपेक्षा इन्द्रियों को जीतने वाला महान् है, शूरवीर है, धीर है, मृत्युञ्जयी है।
इसीलिए एक विचारक ने कहा है
'न रणे विजयाच्छु रो"
..... इन्द्रियाणां जये शूरः ।
रण में विजय प्राप्त कर लेने से
शूरवीर नहीं कहलाता, अपितु जो
- इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वही शूरवीर है । एक कवि ने कहा