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अमरदीप
जैसे कन्द के सद्भाव में हो लता उत्पन्न होती है और बीज से हो अंकुर फूटते हैं, उसी प्रकार पापरूप लता से दुःख अंकुरित होते हैं ॥५॥
- जैसे फूल को नष्ट कर देने पर फल स्वतः नष्ट हो जाता है इसी प्रकार पाप को नष्ट कर देने से दुःख भी समाप्त हो जाता है । सूई के द्वारा ताड़ के ऊर्श्वभाग को बींध देने पर फिर ताड़वृक्ष का विनाश निश्चित है ॥६॥
___ "मूल के सींचने पर फल प्राप्त होता है और मूल को नष्ट कर देने से फल तो स्वतः ही नष्ट हो जाता है । फलार्थी मूल को सींचता है, परन्तु फल को नष्ट करने वाला मूल को नहीं सींचता ॥७।।
दुःख का वेदन (अनुभव) करते हुए दुःखाभिभूत देहधारी दुःख का नाश चाहते हैं, किन्तु एक दुःख का प्रतीकार करने के साथ ही साथ वे दूसरे दुःख का बन्ध कर लेते हैं ॥८॥
संसारी जीव पहले दुःख का बीज बोता है, किन्तु जब दुःख पाता है, तब शोक करता है। पहले कर्ज लिया है तो उसे चुकाये बिना वह मुक्त (दुःखमुक्त) नहीं हो सकता ।।।
जिस प्रकार भूखा बालक आग और सर्प को (भोजन समझ कर) पकड़ लेता है, वह संकट को ही न्यौता देता है। इसी प्रकार सुखार्थी (अज्ञानी आत्मा) अन्य नया पाप करता है ॥१०॥
पावं परस्स कुव्वंतो हसती मोहमोहितो। मच्छोगलं गसंतो वा विणिघातं स पस्सती ॥११।। पच्चुपण्णरसे गिद्धो मोहमल्लपणोल्लितो।। दित्तं पावति उवकंठं, वारिमज्झे व वारणा ॥१२॥ परोवघात-तल्लिच्छो, दप्प मोह-मल्लुधुरो।
सीहो जरो दुपाणे वा गुणदोसं न विदती ॥१३॥ अर्थात् --जब मोहमूढ़ आत्मा दूसरे की हानि के लिए पाप करता है, तब आनन्द का अनुभव करता है। जैसे मछली आटे को गोली निगलती हुई आनन्द पाती है, मगर (उसके पीछे छिपे हुए) अपने विनाश को नहीं देखती ॥११॥
मोहमल्ल से प्रेरित आत्मा वर्तमान कामभोग में लुब्ध होता है । पानी की मझधार में रहे हुए हाथी की भांति वह मोहमूढ़ जीव दीप्त उत्कण्ठा अथवा उत्कट उत्त जना प्राप्त करता है ॥१२॥
दर्परूप मोहमल्ल से उद्धत बना हुआ व्यक्ति दूसरों के घात से प्रसन्न