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अमर दीप
(१०) ध्यान - यों तो ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ये चार भेद हैं, किन्तु मोक्ष मार्ग में सहायक धर्म और शुक्लध्यान ही हैं। अत: इन्हीं की अपेक्षा है । इनके भी चार-चार उत्तर भेद हैं ।
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धर्मध्यान के चार भेद हैं - ( १ ) - आज्ञाविचय, (२) अपायविचय, (३) विपाकविचय और ( ४ ) संस्थानविचय |
इनके लक्षण, आलम्बन, अनुप्रेक्षाएँ भी चार-चार हैं ।
शुक्लध्यान के भी चार भेद हैं, चार ही लक्षण हैं, चार ही आलम्बन हैं और चार ही अनुप्रेक्षाएँ हैं ।
(११) स्वाध्याय -- स्वाध्याय का अर्थ है - सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन । ऐसे ग्रन्थों का पढ़ना-सुनना जिनमें आत्मोत्थान के उपाय बताये गये हों, जीव आदि तत्वों का यथार्थ स्वरूप समझाया गया हो। उन ग्रंथों वर्णित विषयों का चिन्तन-मनन भी स्वाध्याय है ।
(१२) व्युत्सर्ग- व्युत्सर्ग का अभिप्राय है त्याज्य वस्तु का त्याग । त्याज्य वस्तुएँ शरीर आदि हैं ।
इसके भी दो भेद हैं- द्रव्य और भाव ।
द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार उत्तर भेद हैं- ( १ ) शरीर - व्युत्सर्ग, (२) गण व्युत्सर्ग, (३) उपधि व्युत्सर्ग और (४) भक्तपान व्युत्सर्ग ।
यहाँ शरीर व्युत्सर्ग का अभिप्राय शरीर को छोड़ना नहीं अपितु शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करना है । इसी कारण व्युत्सर्ग का दूसरा ना कायोत्सर्ग भी है ।
भाव व्युत्सर्ग के तीन उत्तर भेद हैं- १) कषाय - व्युत्सर्ग, (२) संसार व्युत्सर्ग और (३) कर्म व्युत्सर्ग ।
बन्धुओ ! आपको मैंने निर्जरा के १२ भेदों यानी १२ तपों का संक्षिप्त परिचय दिया है, इनका विस्तार तो अत्यधिक है । फिर कभी इसे विस्तृत रूप से आपके समक्ष रखूंगा ।
इस समय तो मैं अर्हतर्षि महाकाश्यप द्वारा गाथा १० में कथित मुख्य बात पर आता है कि कर्मों का बंध और निर्जरा संसारी जीव को सततसदा-सर्वदा होती रहती है, तो समस्या यह है कि फिर संसारी जीव मुक्त क्यों नहीं हो जाता, वह अभी तक बंधन में क्यों पड़ा है ? सतत निर्जरा होते हुए भी आत्मा सर्व-कर्म मुक्त क्यों नहीं ?
कर्मों की निर्जरा के सम्बन्ध में एक ज्वलन्त प्रश्न उठता है कि आत्मा जब प्रतिक्षण कर्मों की इतनी निर्जरा करता है, तब भी वह सर्वकर्म