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१७२ अमर दीप
धन, एवं साधन यह एक ही पुकार हर दिल दिमाग में से उठती सुनाई देती है | धर्मध्वजी सन्त महन्तों से लेकर गिरहकट और चोर डाकुओं तक हर वर्ग के लोग धन की आकांक्षा से अपने चरखे चलाते रहते हैं । गृहस्थ के लिए जीवन की प्रधान भौतिक आवश्यकताएँ हैं— रोटी, कपड़ा और मकान; जो थोड़े-से समय के उचित श्रम से अनायास प्राप्त किये जा सकते हैं । गरीब कहे जाने वाले लोग भी इन तीनों आवश्यताओं को सहज ही पूरा कर लेते हैं और सन्तोषपूर्वक जीवन-यापन करते हैं । इसके विपरीत वे लोग हैं, जिनके यहाँ सब कुछ होते हुए भी रात-दिन धन की हाय-हाय लगी रहती है ।
साधुओं के लिए भी वस्त्र, पात्र, रजोहरण, कम्बल, पादप्रोञ्छन आदि कुछ धर्मोपकरण ममता मूर्च्छारहित होकर रखने का भगवान् महावीर का फरमान है—
सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, अणुमायं पि संजए । 'संयमी साधक अणुमात्र भी संग्रह न करे ।'
गृहस्थ को भी जीवन-यापन के लिए थोड़े से धन की, नियमित आजीविका की एवं कुछ साधन-सामग्री की आवश्यकता पड़ती है । परन्तु धन को ही एकमात्र लक्ष्य मान लिया जाए यह बहुत ही अनुचित है । ऐसी स्थिति मैं धन साधन न रहकर साध्य बन जाता है। धन की या साधनों की इस. तृष्णा के वशीभूत होकर मनुष्य बुरे से बुरे अनीतियुक्त कुकार्य करते रहते हैं। गरीबी नहीं, तृष्णा ही हिंसा, हत्या, चोरी, डकैती आदि दुष्कर्मों की जननी है। रिश्वतखोरी, बेईमानी और ठगी, तस्करी आदि के जो विशालकाय अनर्थ हो रहे हैं, जो प्रायः उच्चवर्ग के लोगों द्वारा सम्पन्न किये जा रहे हैं, उनके मूल में गरीबी नहीं, वित्तैषणा होती है । वित्तैषणा के शिकार लोगों का जीवन अशान्ति, बेचैनी, चिन्ता और परेशानी में व्यतीत होता है । ऐसे लोग वस्तुतः अत्यन्त दयनीय हैं । वे बेचारे न तो जीवन का मूल्य समझ सके, न ही उससे लाभ - उत्तम साधना आदि का प्राप्त कर सके । असन्तोष की आग में जलने वाले वे वित्तैषणाग्रस्त लोग विशाल अस्पताल के कीमती पलंगों पर पड़े हुए वे रोगी हैं, जो आग से झुलसे हुए हैं, जिनके भीतर और बाहर आग एवं जलन ही पीड़ा दे रही । उन अभागों को कीमती इमारत और बहुमूल्य पलंग का क्या सुख मिल सकता है ? लोकैषणा और वित्तैषणा के कुचक्र को तोड़ने के उपाय बन्धुओ !
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अर्हतर्षि याज्ञवल्क्य ने लोकैषणा और वित्तैषणा के गठबन्धन को