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शुद्ध-अशुद्ध क्रिया का मापदण्ड १६३ पौषधव्रत का सम्यक रूप से पालन न किया हो।
इसी प्रकार तपश्चर्या के सम्बन्ध में भी दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा गया है -
न इहलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा । न परलोगट्ठयाए तवमहिद्विज्जा ।। न कित्ति-वन्न-सिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा।
नन्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ॥ इहलौकिक फलाकांक्षावश तपश्चर्या न करे। न हो पारलौकिक फलाकांक्षापूर्वक तप करे और न कीर्ति, प्रशंसा, प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि आदि को दृष्टि से तप करे, किन्तु एकान्त निर्जरा (कर्मक्षय करके आत्मशुद्धि) के. लिए ही तपश्चर्या करे।
__ जो बात तपस्या के लिए कही गई है, वही बात ज्ञानाचार आदि पांच प्रकार के आचार (धर्माचरण) के लिए कही गई है।
'नन्नत्थ आरहतेहि हेहिं आयारमहिट्ठिज्जा' आचार का पालन भी एकमात्र अर्हतरूप (वीतरागता) की प्राप्ति के उद्देश्य से करना चाहिए।
निष्कर्ष यह है कि क्या साधु की और क्या श्रावक सभी की साधनाओं या अनुष्ठानों के पीछे उद्देश्य, विचार, निष्ठा, दृष्टि या श्रद्धा का शुद्ध होना आवश्यक है।
नन्दीसूत्र में जहाँ, मिथ्याश्रत और सम्यकक्ष त के कतिपय नामों का उल्लेख किया है, वहाँ बताया गया है कि जैसी दृष्टि होगी, तदनुसार वह श्रु त (शास्त्र) भी उसके लिए वैसा ही माना जाएगा। जैसे कि वहाँ मिथ्याश्रु त की परिगणना के बाद कहाँ गया है
एयाइं चेव सम्मविट्ठिस्स सम्मत्त परिग्गहियाई सम्मसुयं ।
ये ही मिथ्याश्रु त (जिनके नाम ऊपर गिना आए हैं) सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यकरूप में ग्रहण करने के कारण सम्यकश्रत हैं। साथ ही वहाँ आचारांग आदि सम्यक्च तों की परिगणना के बाद कहा गया है
एआई मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं
ये ही (आचारांग, भगवती आदि सम्यक्श्रुत) मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या (विपरीत) रूप में ग्रहण करने के कारण मिथ्याश्रत हैं।
इसी दृष्टि से इस चौदहवें अध्ययन में बाहुक अर्हतर्षि ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा है