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शुद्ध - अशुद्ध क्रिया का मापदण्ड १६५
दूसरी बहन रसोई बनाती है— बेगार समझकर । उस पर रसोई बनाने का काम आ पड़ा । इसलिए जैसी-तैसी रसोई बनाकर छुट्टी पाना चाहती है । इस बहन का दृष्टिकोण रसोई की क्रिया को बोझरूप समझकर करने का है ।
तीसरी बहन रसोई इस दृष्टिकोण से बनाती है कि इस भोजन को पाकर मेरे समस्त कुटुम्बीजन स्वस्थ और सशक्त रहें, साथ ही इस भोजन अतिथि, अभ्यागत एवं साधु-साध्वी को भी देने का लाभ प्राप्त हो ।
रसोई की क्रिया तीनों बहनों की एक होते हुए भी तीनों के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर होने से इनके फल में भी अन्तर आना स्पष्ट है । पहली दो बहनों की रसोई की क्रिया की अपेक्षा तीसरी बहन की रसोई बनाने की क्रिया में आरम्भ होते हुए भी पुण्यलाभ या धर्मलाभ का पलड़ा भारी है ।
निष्कर्ष यह है कि क्रिया शुद्ध होने पर भी अगर उसके पीछे विचारधारा अशुद्ध है तो सारी क्रिया अशुद्ध हो जाएगी ।
त्याग और प्रत्याख्यान की क्रिया शुद्ध होते हुए भी अगर उस त्याग या प्रत्याख्यान के पीछे अशुद्ध उद्देश्य है तो वह त्याग दुस्त्याग और वह प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान समझा जाता है । भगवान् महावीर ने गौतम गणधर से इस विषय में स्पष्ट कहा है । भगवतीसूत्र इस बात का साक्षी है । उदाहरण के रूप में एक व्यक्ति क्रोध के आवेश में या गृहकलह से तंग आकर आमरण आहार का प्रत्याख्यान करने को तत्पर होता है । दूसरा साधक शरीर से धर्मपालन करने में बिल्कुल अशक्त, दुर्बल और असमर्थ होने पर समाधिभाव से स्वेच्छा से आजीवन आहार का प्रत्याख्यान करने को तत्पर होता है । भगवान् कहते हैं कि पहले व्यक्ति का प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है और दूसरे व्यक्ति का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है ।
पक्षियों को दाना डालना करुणा- प्रेरित कार्य माना जाता है । एक बहेलिया (शिकारी) भी दाने बिखेरता है, किन्तु उसके पीछे उसकी भावना अशुद्ध है, पक्षियों को जाल में फंसाने की है । अतः अन्नदान की शुभ क्रिया भी पुण्यजनक न होकर पापजनक (पापकर्म - बन्धक) हो जाती है ।
इस बात को दृष्टिगत रखकर अर्हतषि बाहुक कहते हैं शुद्ध ( युक्त) क्रिया भी अनुचित भाव के साथ है, तो वह यथार्थ एवं प्रामाणिक नहीं है । क्रिया एक: स्थितिभेदवश परिणाम अनेक इसी बात को दूसरे पहलू से अर्हतषि बाहुक कहते हैं