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शुद्ध - अशुद्ध क्रिया का मापदण्ड २०१
लक्ष्यहीन साधना, अकाम-निर्जरा की हेतु है, वह कभी नरक का हेतु भी हो सकती है । 'अकाम' का दूसरा अर्थ होता है - निष्काम = कामना रहित; फलासक्तिरहित निष्काम साधना । जिसमें न इहलौकिक कामनावासना हो और न पारलौकिक कामना - वासना हो । अथवा जिस साधना के पीछे न तो स्वर्ग के रंगीन सुख की कामना हो और न ही नरक की आग से बचने की आकांक्षा हो। ऐसा निष्काम तपश्चरण मोक्ष का हेतु होता है । अकाम का पहला रूप जैन - परम्परा में अधिक प्रचलित है, जबकि दूसरा रूप भगवद् गीता में निष्काम कर्मयोग के रूप में प्रचलित है ।
सकाम शब्द भी दो अर्थों में
जैन दृष्टि में निष्काम के बदले सकाम शब्द अधिक व्यवहृत हुआ है । अतः अर्हषि बाहुक 'सकाम' साधना का माहात्म्य और द्विविध परिणाम बताते हुए कहते हैं
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" सकामए पव्वइए, सकामए चरते तवं सकामए कालगते णरगं पत्त े । सकामए चरते तवं सकामए कालगते सिद्धि पत्त े सकामए ।"
जो साधक कामनाओं के साथ प्रव्रजित हुआ है, और कामनायुक्त तपश्चरण करता है; वह सकाम --- ----कामनायुक्त मृत्यु प्राप्त करके नरक को ता है। दूसरी ओर, सकाम (स्वकाम - स्वेच्छा से) तपश्चरण करता है, काम (इच्छित अन्तिम समाधि) मरण प्राप्त करके आत्मा सकामक (अभीष्ट) सिद्धिस्थिति को प्राप्त करता है ।
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'अकाम' शब्द की तरह 'सकाम' शब्द का भी दो अर्थों में प्रयोग किया गया है । पहले प्रयुक्त 'सकाम' का भावार्थ है - जिस साधक के मन में विविध इहलौकिक - पारलौकिक कामनाओं का जाल बिछा हुआ है । उन्हीं कामनाओं और सुखभोग की सामग्री को सहस्रगुणित रूप में पाने के लिए जो साधना करता है, उसकी वह वासना की ज्वाला कभी नरक की ज्वाला के रूप में भी परिणत हो सकती है ।
सकाम तप का दूसरा अर्थ है - स्वेच्छा से, सदुद्देश्य से, लक्ष्य प्राप्ति के लिए किया गया तप, जिसमें बाहरी दबाव, नरक का भय या स्वर्ग का प्रलोभन आदि न हो । परिस्थिति से या पराधीनता से विवश होकर भूखा