Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 215
________________ "१६० । अमरदीप सारांश यह है कि कर्मों का क्षय दो प्रकार से होता है-(१) विपाकोदय से और (२) उदीरणा से । कर्म जब सहज रूप में विपाककाल समाप्त होने पर उदय में आकर क्षय हो जाता है, उसे विपाकोदय कहते हैं । किन्तु देर से उदय में आने वाले कर्मों को आत्मा जिस प्रक्रिया द्वारा शीघ्र उदय में ले आता है, उसे उदीरणा कहते हैं। उदीरणा के भी दो रूप हैं। पहला रूप है-शान्त उदीरणा और दूसरा रूप है - अशान्त उदीरणा । शान्त उदीरणा में आत्मा कर्मों का क्षय करता है । जबकि अशान्त उदीरणा में वह कर्मों का अधिक बन्ध कर लेता है। दान : कर्मक्षय का साधन, कब और कब नहीं ? आत्मा के सौन्दर्य को नष्ट या मन्द करने वाले कर्मों को क्षय करने में 'दान' भी एक महत्त्वपूर्ण साधन है। किन्तु दान देते समय मनुष्य की भावना और विवेकदृष्टि पर ही विशेष दारोमदार है। इसी दृष्टि से अर्हतषि भयाली इस अन्तिम गाथा में दान देने वालों की भावनाओं के प्रकार बताते हुए कहते हैं 'अत्थि में तेण देति, 'नत्थि में तेण देइ मे। जइ से होज्ज, " मे देज्जा, पत्थि से तेण देह मे ॥६॥ ___ अर्थात्-एक व्यक्ति मेरे पास कुछ है इसलिए कुछ देता है, दूसरा व्यक्ति- 'मेरे पास नहीं है' ऐसा जानकर भी कुछ न कुछ दे देता है । तोसरा व्यक्ति ऐसा है, जिसके पास कुछ है, फिर भी देने से इन्कार करता है। चौथा व्यक्ति कहता है- 'मेरा तो कुछ भी नहीं है, इस प्रकार वस्तु पर अपना अधिकार नहीं मान कर देता है। वस्तुतः यहाँ दान के पीछे चार प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख परोक्षरूप से किया गया है (१) एक व्यक्ति के पास देने को बहुत है, परन्तु वह देता है-पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि या हजार देकर दस हजार गुना सम्मान पाने की आशा से । यह दान नहीं, एक प्रकार की सौदेबाजी है, विज्ञापनवृत्ति है जो दान की पवित्रता को समाप्त करती है। (२) दूसरा व्यक्ति कुछ नहीं है, यह कहकर देता है, किन्तु देता हैस्वर्गप्राप्ति के लोभ से । उसकी धारणा यह है कि जो कुछ यहाँ दिया जाएगा उसका हजार गुना होकर स्वर्ग में मिलेगा।

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