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१८८ अमरदीप
से सम्बन्धित निमित्तों सगे-सम्बन्धियों वस्तुओं या ऋतुओं को कोसते रहते हैं । अथवा शरीर से सम्बन्धित शारीरिक सौष्ठव सौन्दर्य, वस्त्र, धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि शुभनिमित्तों के देखकर गर्व करते रहते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों में निमित्तों को देखने के कारण मनुष्य नाना प्रकार के कर्मबन्धन करता रहता है और वह भविष्य में अनेक भवों तक भटकाते रहते हैं ।
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इसके विपरीत जो सम्यग्दृष्टि मानव आत्मा के सौन्दर्य को देखता है । वह आत्मा को शाश्वत, नित्य, अविनाशी तथा स्वकृत कर्मों का कर्त्ता, भोक्ता और क्षयकर्त्ता मानता है ।
बन्धुओ !
शरीर से सम्बन्धित शुभाशुभ निमित्तों को देखने की आज होड़ लग रही है, परन्तु आत्मा पर लगे हुए दाग - कर्मों के मैल को देखने और उनको मिटाने की ओर बहुत ही कम ध्यान है । कर्मों के कारण जो आत्मा की कुरूपता क्षण-क्षण में बढ़ रही है, इसका विचार करने वाले ही वास्तव में आत्मिक सौन्दर्य के द्रष्टा हैं। वे ही आत्मिक सौन्दर्य को नष्ट करने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले नाना दुःखों के लिए स्वकृत कर्मों को ही उत्तरदायी मानते हैं । आत्मा की वास्तविक सुन्दरता सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र एवं तप से है । ज्ञानादि सम्पन्न आत्मा विपत्ति के दुःखद क्षणों में निमित्तों पर रोष-द्वेष नहीं करती और न ही विषय सुख सम्पन्नता के क्षणों में निमित्तों पर राग या मोह करती है । वह आत्म-सौन्दर्य का ज्ञाता द्रष्टा मानव जानता है कि दुःख और सुख स्वकृतकर्मों का ही फल है । अतः आत्मिक सौन्दर्य बढ़ाना हो तो मुझे इन कर्मों को क्षय करने के लिए कृतनिश्चयी होना चाहिए ।
आत्म-सौन्दर्यनाशक कम का क्षय कैसे और किस प्रकार ?
यदि आत्मिक सौन्दर्य को नष्ट या फीका करने वाले कर्मों तथा उनके फलस्वरूप होने वाली भवपरम्परा को समाप्त करना हो तो क्या करना चाहिए ? इसके लिए अर्हतर्षि भयाली कहते हैं
मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलं । फलत्थी सिंचति मूलं, फलघाती ण सिंचती ॥४॥ लुप्ती जस्स जं अत्थि, णासंतं किचि लुप्पती । संताती लुप्पती किचि णासंतं किचि लुप्पती ॥५॥