Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 214
________________ जीवन की सुन्दरता १८६. अर्थात् - 'मूल को सींचने से फल की उत्पत्ति होती है। मूल को नष्ट कर दिये जाने पर फल नष्ट हो जाता है । फलार्थी मूल का सिचन करता रहता है, जबकि फल को नष्ट करने वाला उसका सिंचन नहीं करता ।' जिसका जो कर्म (उदयरूप में सत् - विद्यमान ) है, वही लुप्त हो सकता है, किन्तु असत् ( वर्तमान में उदयरूप में अविद्यमान) का लोप नहीं हो सकता। विद्यमान (सत्) में किंचित् लोप हो सकता है, किन्तु असत् ( अविद्यमान) में से किंचित् भी लोप नहीं हो सकता ।' वास्तव में भवपरम्परारूप फल की प्राप्ति उसके कर्मरूप मूल को सींचने से होती है । अगर भव परम्परारूप फल को समाप्त करना हो तो उसके कर्म रूप मूल को नष्ट करना चाहिए । जो भवाभिनन्दी होता है, भवभ्रमण करने में ही जो अपने आपको सुखी मानता है, वह फलार्थी आलस्य-वश या प्रमाद के वश भवभ्रमण को समाप्त करने का पुरुषार्थ नहीं करता । किन्तु जो भवभीरू होता है, भवभ्रमण से जिसे विरक्ति हो चुकी है. वह चार बातों पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करता है । (१) भव-स्वरूप का चिन्तन, (२) कर्म - विपाक का विचार, (३) आत्मा के शुद्धस्वरूप और उस की अनन्तशक्ति का भान, और (४) वीतराग परमात्मा की आज्ञा के प्रति बहुमान । यह चारों बातें हृदय में जम या रम गईं तो समझ लो भववैराग्य पक्का हो गया । भववैराग्य परिपक्व होते ही भवपरम्परा को समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, अर्थात् - स्वकृतकर्मों को निर्जरा द्वारा क्षय करने तथा नये आते हुए कर्मों को संवर द्वारा रोकने का पुरुषार्थ शुरू हो जाता है । 1 परन्तु अर्हतषि भयाली कहते हैं, कि आत्मा पहले के स्वकृत सभी कर्मों का क्षय एक साथ करना चाहे तो वह तभी कर सकता है, यदि वे कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हों, अर्थात् -- वर्तमान में जो कर्म उदय में आ गये हों । परन्तु कर्म सिद्धान्तानुसार उदय में आये हुए सभी कर्मों का क्षय, वही आत्मा कर सकता है, जो उदित कर्मों को शान्त भाव से भोगता है । जो आत्मा कर्मोदय के फलों में अशान्त हो उठता है, वह उदित कर्मों का भी सर्वथा क्षय नहीं कर पाता । यद्यपि उदय में आए हुए कर्मों को उसे बरबस भोगना पड़ता है, उससे अकाम निर्जरावश कर्म क्षय तो होते हैं, किन्तु साथ ही अशान्तभाव से हाय-हाय करके, या प्रशंसा या गर्व से रागभावपूर्वक भोगने से और नये कर्मों का बन्ध हो जाता है, जो कि पूर्व कर्मों के अनुपात कई गुना अधिक होते हैं । अतः उदय में आए हुए कर्मों को शान्तभावः से भोगने से पुराने कर्म क्षय हो जाते हैं और नये कर्म नहीं वंधते ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282