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अमर दीप
के लिए प्रयत्न न करे । वह जो भी प्रवृत्ति करे, यतना से करे । जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा है
जयं चरे, जयं चिट्ठे, जयमासे जयंं सए । जयं भुजंतो भासतो पावकम्मं न बंधइ ॥
साधक यतनापूर्वक चले, यतना से खड़ा हो, यतना से बैठे, यतना से सोए, यतना से भोजन करे, यतना से बोले तो पापकर्म का बन्ध नहीं होता । तप, जप, प्रवचन, विहार या अन्य परोपकार के कार्यों को प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का साधन न बनाए । उसके पीछे नामनाकामना से दूर रहे, लोकैषणा के जाल में तप, जप, आचारपालन, महाव्रत, समिति - गुप्ति - पालन आदि को गूथे; तभी इन दोनों एषणाओं से पिण्ड छूट सकता है।
जो भी चर्या करे, उसे कामनारहित, आसक्ति - रहित, फलासक्तिरहित एवं प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से दूर रहकर करे । आसक्ति को त्याग कर यथालाभ सन्तोष की नीति अपना कर चले । सुख पाने में नहीं, त्याग में है । सुख, कर्मफल के दीवाने रहने या लालायित रहने में नहीं है बल्कि कर्तव्य - शील एवं दायित्व युक्त होकर विचरण करने में है । श्रमण वर्ग इस स्वर्णसूत्र को अपनाए
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लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ ||
लाभ और अलाभ, सुख और दुःख, जीवित और मरण, निन्दा और प्रशंसा तथा मान और अपमान सभी द्वन्द्वों में समभाव रखे ।
प्राणिमात्र के प्रति समभाव और आत्मौपम्यभाव रखकर चले । अनिवार्य आवश्यक वस्तु की याचना करने पर यदि प्रासुक, एषणीय एवं कल्पनीय वस्तु प्राप्त नहीं हुई तो वह रोष या द्वेष व्यक्त न करे । उसे परीषह समझ कर समभाव से सहे ।
इसके लिए गोपथ से जाने का उपाय बताते हुए अर्हतर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं
जहा कवोता य कविजला य गाओ चरंति इह पातरासं । एवं मुनी गोयरियप्पविट्ठे, जो आलवे, णो विय संजलेज्जा ॥१॥ पंच वणीमकसुद्धं जो भिक्खं एसणाए
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तस्स सुलद्धा लाभा, हण्णाए विमुक्कदो ॥२॥ पंथाणं रूवसंबद्ध फलावत च चितए । कोहातीणं विवाकं च अप्पणो य परस्स य ॥३॥