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जीवन की सुन्दरता १८३ हिंसा के इन अर्थों पर बारीकी से ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक भी अपनी मर्यादा में ये और इस प्रकार की संकल्पी हिंसाएँ नहीं कर सकता, जिनसे दूसरों का शोषण, उत्पीड़न, अनिष्ट, अहित, अंगभग या विनाश हो, अथवा नुकसान हो ।
आज अगर देखा जाय तो गृहस्थ समाज में इस प्रकार की कई पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, साम्प्रदायिक, जातीय या प्रान्तीय आदि हिंसाएँ पनप रही हैं। जिन्हें देखकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं कि वर्तमान जैन समाज जो अहिंसा का दावा करता है, पानी छानकर पीता है, रात्रि में भोजन नहीं करता, मांस-मछली और अंडों के सेवन परहेज करता है, मद्यपान नहीं करता, वह व्यावहारिक जीवन में कितना नीचे उतर आया है ? एक तरफ एकेन्द्रिय जीवों का रक्षण करने वाला पंचेन्द्रिय जीवों और उसमें भी मनुष्यों की दया में कितना पिछड़ा हुआ है । मानव-सेवा, पशु-सेवा के क्षेत्र में उसे आगे आना है ।
पारिवारिक जीवन में भी आज कई प्रकार की मानवीय हिंसाएँ पनप रही हैं । सगे भाइयों में परस्पर वैमनस्य इतना बढ़ जाता है कि एक भाई दूसरे भाई को जान से मारने, सताने और आत्महत्या करने को विवश कर देता है। एक भाई आर्थिक दृष्टि से कमजोर है, यहाँ तक कि उसके घर में रोटियों के भी लाले पड़े हैं, फिर भी दूसरे सम्पन्न भाई को दया नहीं आती, वह सहानुभूति भी नहीं बता सकता, सहायता भी नहीं कर सकता, बल्कि द्वार पर आ जाये तो धक्के देकर निकाल देता है, क्या इस प्रकार का अमानवीय व्यवहार हिंसा नहीं है।
इसी प्रकार किसी के लड़का है, वह दूसरे की लड़की से अपने लड़के का रिश्ता तय करता है। उस समय लड़की वाले की हैसियत मुहमाँगा देने की नहीं होती, फिर भी उस पर दबाव डाला जाता है, अगर वह समय पर उतने रुपये या साधन सामग्री देने की व्यवस्था नहीं कर पाता तो दहेज के लोभी निर्दय लोग उस सम्बन्ध को तोड़ डालते हैं। अगर उस लड़की के साथ विवाह हो भी जाता है तो लड़की को वार-बार तंग करते हैं. कई दहेज लोभी दानव तो उसे जला डालते हैं, मारते-पीटते हैं, अनेक प्रकार के जुल्म ढहाते हैं, वचन वाणों से बींध डालते हैं। आए दिन समाचार पत्रों में जनेतर ही नहीं, जन परिवारों में भी लड़कियों को दहेज की बलि वेदी पर जला कर या गला घोंट कर मार डालने के समाचार पढ़ते हैं। इससे मालूम होता है कि जैन समाज अभी अहिंसा के संस्कारों से कितनी दूर है ?