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१८४ अमरदीप मानवता से भी कितना दूर है ? दहेज लोभी अहिंसा धर्म से कितने विमुख हैं ? इस विषय में कविरत्न चन्दन मुनिजी का मार्मिक कथन देखिए
भारत से धर्म देख लो, अब तो रवाना हो गया। किसको सुनाएँ भाइयो ! बहरा जमाना हो गया ।घ्र न॥ लड़के का बाप पूछता, लड़की के साथ दोगे क्या ? मोटर बिना तो व्याह का, मुश्किल रचाना हो गया ।भारत॥१॥ लड़की चाहे गुणवती, चाहे हो सीता सती।
लड़के का लालची पिता धन का दीवाना हो गया ॥भारत।।२।। कई शोषणकर्ता लोग ब्याज आदि के रूप में आर्थिक दृष्टि से विपन्न व्यक्ति को पीड़ित कर देते हैं, वे ब्याज पर ब्याज · लगाकर सौ के बदले एक बिंदी और चढ़ाकर हजार करके अपनी प्रामाणिकता, न्याय-नीति और अहिंसा-धर्म का दीवाला निकाल देते हैं। __कई लोग श्रमजीवी लोगों से अधिक श्रम लेकर, बदले में बहुत कम पारिश्रमिक देते हैं, कई तो बेचारे श्रमजीवी सेवकों के, किसी कारणवश जरा-सी देर से आने पर, उसके या उसके परिवार के किसी व्यक्ति की बीमारी आदि होने पर जरा भी सहानुभूति नहीं बताते. उसके वेतन में से काट लेते हैं। इसके कारण मालिक-मजदूर, स्वामी-सेवक आदि में परस्पर स्वार्थों की टक्कर चलती है। आए दिन हड़ताल, बंद, कार्य में क्षति, उत्पादन में कमी आदि अनिष्ट इसी के परिणाम हैं। दोनों ओर रोष, द्वेष, कलह आदि का दौर चलता है, जो भयंकर मानसिक हिंसा का कारण है।
श्रावक को इन और ऐसी पारिवारिक एवं सामाजिक हिंसाओं से दूर रहना चाहिए। ऐसे ही किसी शोषणजीवी, अर्थलोभी श्रावक से कोई पीड़ित एवं शोषित व्यक्ति प्रश्न पूछ सकता है कि मेरा शोषण करके या मुझे पीड़ित करके क्यों मार रहे हो? .
अपने कुटुम्ब या जाति में जो आर्थिक दृष्टि से विपन्न है, या घर में केवल एक विधवा महिला है, कमाने वाला कोई नहीं है, फिर भी कई कौटुम्बिक जन या ज्ञातिजन उसे ज्ञाति की अमुक कुरूढ़ि, जैसे-मृतक भोज, प्रीतिभोज आदि करने के लिए विवश एवं कायल कर देते हैं। इससे वह कुटुम्ब, ज्ञाति या परिवार पनप नहीं पाता । अन्दर ही अन्दर ऐसे लोगों के प्रति अर्थ संकटग्रस्त व्यक्ति के अन्तर् से आह निकलती है।