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लोकैषणा और वित्तषणा के कुचक्र १७५ जैसे कबूतर, कपिजल पक्षी और गाय प्रातःकाल का भोजन प्राप्त करने के लिए वन में घूमते हैं, इसी प्रकार गोचरी के लिए प्रविष्ट मुनि गोवत् भिक्षा करे, परन्तु स्वादिष्ट पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसी गृहस्थ की प्रशंसा न करे और न ही भिक्षा न मिलने पर वह कुपित हो ।
कर्मक्षय करने हेतु भिक्षाजनित दोषों से विमुक्त मुनि पंचविध वनीपकों (याचक, अतिथि, कृपण दीन, ब्राह्मण, या कुत्ता एवं अन्यतीर्थिक श्रमण) से (अर्थात्-इनको अन्तराय न डालते हुए) शुद्ध (निर्दोष) भिक्षा गवेषणापूर्वक ग्रहण करे।
मुनि अपने रूप (स्वरूप) से सम्बद्ध पथ और फलवृत्ति का चिन्तन करे तथा स्व और पर के क्रोधादि के विपाक का भी विचार करे । भावार्थ यह है कि भिक्षा के लिए जाते समय जिनशासन और मुनि के स्वरूप को सदैव दृष्टिगत रखे । उसी के अनुरूप फल की आवृत्ति चाहे । साथ ही, वह स्व और पर किसी के लिए भी क्रोध का निमित्त न बने।
. पहले लोकैषणा और वित्तषणा का परित्याग करने का निर्देश किया गया था। अब इन तीन गाथाओं में उसी सन्दर्भ में उक्त दोनों एषणाओं का परित्याग करने के लिए साधु वर्ग के लिए शुद्धभिक्षाचरी-गोचरी करने का निर्देश किया गया है । साधवर्ग जब गोवत् भिक्षाचरी करेगा, उस समय अगर उसमें उक्त दोनों प्रकार की एषणा होगी तो वह ताक-ताक कर सम्पन्न घरों में आहारादि की प्राप्ति के लिए जाएगा, कहीं न मिलने या किसी के न देने पर असन्तुष्ट होकर कुपित होगा, उस ग्राम, नगर या घर को कोसेगा, अथवा कहीं दीनता दिखाएगा, अपनी जाति, कुल, आजीविका आदि का बखान करेगा, या किसी के यहाँ से सरस स्वादिष्ट आहार, सुन्दर वस्त्र, पात्रादि मिलने पर या लेने के लिए उसकी प्रशंसा करेगा। इस प्रकार वह साधु लोकेषणा और वित्तषणा दोनों से लिप्त हो जाएगा।
जिस साधु में वित्तषणा (पदार्थों के पाने की लालसा) या लोकैषणा नहीं होगी, वह गाय की तरह क्रम से उच्च-नीच या मध्यम कुलों में तथा सम्पन्न या असम्पन्न सभी घरों में क्रमशः गोचरी करेगा, और सहज में प्राप्त कल्पनीय एवं एषणीय वस्तु को ग्रहण करके समभाव से उसका उपयोग करेगा। सरस वस्तु की प्राप्ति होने पर उसके मन में गर्व नहीं होगा और नीरस वस्तु मिलने पर उसे दीनता, निराशा या खिन्नता नहीं होगी।
__वह लाभ या अलाभ में सम रहेगा। उसके मन में सरस स्वादिष्ट या अभीष्ट वस्तु को पाने या प्रचुर मात्रा में पाने की एषणा (लोभ) नहीं