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लोकषणा और वित्तषणा के कुचक्र १७३ तोड़ने का भी उपाय बताया है कि साधक को इन दोनों का त्याग करके गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं।
मनुष्य के सामने जीवन जीने के दो पथ हैं । पहला पथ है-अधिक अर्जन करे और अधिक से अधिक खर्च करे। अर्थात्-विलास और वैभव के प्रसाधन अधिकाधिक एकत्रित किये जाएँ, तथा अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अधिकाधिक सम्पत्ति जुटाए।
दूसरा पथ है-सीमित आबश्यकताएँ और सीमित साधन । अर्थात् संयम मर्यादा में रहकर कम से कम साधनों से, अपनी अत्यल्प आवश्यकताओं की पूर्ति करे, और वह भी समाज के प्रति कृतज्ञ और नम्र रहकर ! दोनों प्रकार की एषणाएँ आवश्यकताओं को बढ़ाने के मार्ग पर ले जाती हैं।
जैन संस्कृति दोनों प्रकार की एषणाओं से दूर रहकर दूसरे पथ से जाने का निर्देश करती है। . जैन धर्म कहता है--साधु वर्ग एवं गृहस्थ वर्ग दोनों अपनेअपने दायरे में आवश्यकताओं पर अंकुश लगाकर चलें श्रावक का परिग्रहपरिमाणव्रत, उपभोग-परिभोग-परिमाणवत, अनर्थदण्डविरमणव्रत, दिशापरिमाणवत आदि व्रत आवश्यकताओं और आकांक्षाओं में कटौती करता है, उसमें मितव्ययिता लाता है और कम से कम आवश्यकताओं से अपना जीवन चलाने की प्रेरणा देता है। साथ ही लोकैषणा को शान्त करने के लिए अपने साधनों में से अतिथि (सुपात्र) के लिए भी विभाग करे । जैन संस्कृति कहती है--जितनी ही आवश्यकताएँ बढ़ेगी, उनकी पूर्ति के लिए उतने ही पाप बढ़ेगे। उतने ही संघर्ष बढ़ेगे, हैरानी, अशान्ति, चिन्ता और बेचैनी बढ़ेगी। संसार में इच्छाएँ असीम हैं उनका कोई अन्त नहीं है। कहा भी है-इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।
इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। जितनी इच्छाएँ हैं, संसार में उतने साधन नहीं हैं, वे तो सीमित हैं। शरीर है तो उसके निर्वाह के लिए कुछ न कुछ आवश्यकता तो रहेगी ही । किन्तु वे आवश्यकताएँ अनियंत्रित न हों। इसके लिए जैन साधक के लिए निर्देश दिया कि वह गोपथ से जाए, महापथ से नहीं।
___साधुवर्ग को गोपथ से जाने के निर्देश का रहस्य इसका भावार्थ यह है कि साधक संयमपथ से या यतनापथ से जाए। यदि उसकी आवश्यकता एक ही वस्त्र से पूर्ण हो जाती है तो वह दूसरे वस्त्र