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अमर दीप
लोकैषणा की इस डाकिन की भूख कितनी प्रबल होती है, एक साधक कवि के शब्दों में देखिए
मैं बना नाम का भूखा, मैं.......।। ध्रुव ।। नाम का भूखा, न काम का भूखा
नहीं अचल धाम का भूखा ॥ मैं ॥१।। शान का भूखा, मान का भूखा, नहीं आत्मज्ञान का भूखा ।। मैं"।।२।। गान का भूखा, तान का भूखा नहीं एकतान का भूखा ।। मैं ॥३॥ खान का भूखा, पान का भूखा, नहीं सुधापान का भूखा ।। मैं"।।४।। राज का भूखा, ताज का भूखा, नहीं अचलराज का भूखा ।। मैं ॥५॥ मत का भूखा, षत का भूखा, नहीं अटल सत का भूखा । मैं " ॥६।।
लोकैषणा की दुवृति के ये ज्वलन्त चित्र हैं । लोकैषणा की इस आग में आज प्रायः सारा संसार जल रहा है। त्यागियों के लिए तो भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र (३५/१८) में कठोर आदेश दिये हैं
अच्चणं रयणं चेव वंदणं पुयणं तहा।
इड्ढी-सक्कार-सम्माणं मणसा वि न पत्थए ।।१८।। 'साधु अर्चन, रंजन (मनोरंजन), वन्दन, पूजन तथा ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी इच्छा न करे ।'
वास्तव में लोकैषणा का पूजारी वीतराग-प्रभु का पुजारी नहीं हो सकता । वह अहं का पुजारी है, अहं का नहीं। सत्कर्म पुण्य और परमार्थ को लोकैषणा के लिए बेच देने वाले हीरा बेचकर काच खरीदने वाले . विवेकमूढ़ की तरह हैं।
आज गृहस्थों द्वारा भी अमीरी का रौब गांठकर फिजूलखर्ची के द्वारा अपना बड़प्पन सिद्ध करके प्रशंसा पाने का प्रयत्न किया जा रहा है । अधिकांश लोगों में शेखीखोरी, बनावट, दिखावा, ढोंग, फैशनपरस्ती और फिजूलखर्ची आदि के द्वारा बड़प्पन दिखावे की होड़ चल रही है। ठाटबाट बनाने में लोग अपनी गाढ़े पसीने की कमाई का अधिकांश भाग फूक देते हैं। शरीर ढकने के लिए साधारण कपड़ों से काम चल सकता है, पर उन पर प्रचुर धन खर्च करके कीमती सूट और महंगी साड़ी खरीद कर लोग अपनी अमीरी का प्रदर्शन करते हैं। इसी प्रकार जेवर लादे फिरने का फूहड़पन भी लोग उनको धनी समझें, इस ओछी बुद्धि का परिचायक है। विवाह शादियों में लोग अंधे होकर पैसे की होली जलाते हैं, उसका प्रयोजन भी दर्शक लोगों से प्रायः प्रशंसा पाने का रहता है । मृत्युभोज या बड़ी