Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 194
________________ लोकषणा और वित्तषणा के कुचक्र १६६ सम्प्रदाय उपसम्प्रदाय या पंथ में समकित-बदली की जाती है। इस प्रकार की वित्तषणा और लोकैषणा के कारण कई साधु तो रात-दिन इसी उधेड़बुन में, इसी फिराक में और इसी प्रकार की जोड़ तोड़ करने में लगे रहते हैं। उनको इनकी चिन्ता इतनी अधिक सताती है कि वे अपना आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण या आत्मशोधन जरा भी नहीं कर पाते । यह विचारणीय है। महत्त्वाकांक्षा : कैसी उचित, कैसी अनुचित ? उन्नति की आकांक्षा स्वाभाविक एवं आध्यात्मिक मनोवृत्ति है। तुच्छता या क्षुद्रता से आगे बढ़कर महत्ता को प्राप्त करना स्वाभाविक है। नैतिक और आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्म-साधना या आराधना में आगे बढ़ने की आकांक्षा का औचित्य है। परन्तु यह आकांक्षा तभी सफल हो सकती है, जब उक्त महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति में धैर्य, साहस, विवेक, तथा शुद्ध धर्माचरण में पुरुषार्थ का उचित सम्मिश्रण हो। ऐसी महत्त्वकांक्षा गुणों की होनी चाहिए । उत्तम क्षमा आदि दशविध धर्म, समता, साधुता, संयमशीलता, आदि तथा प्रसन्न मन और स्थिर चित्त आदि गुणों के होने पर ही महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हो सकती है। किन्तु उन्नति की आकांक्षा अपनी योग्यता, एवं गुणों को देखकर होनी तो उचित हैं, किन्तु गुणवत्ता या योग्यता के बिना ही बेसुरा राग अलापना कथमपि उचित नहीं है । लोकषणा की इस दुष्प्रवृत्ति के कारण सार्वजनिक अथवा लोकसेवा का जीवन, अथवा धार्मिक क्षेत्र भी अत्यधिक गंदा, विकृत और मलिन होता चला जा रहा है। धार्मिक जगत् में त्यागी कहे जाने वाले लोग यदि अपनी लोकैषणा का त्याग कर सके होते तो भारत की धर्मप्रधान जनता का जीवन चारित्र की दृष्टि से कहीं अधिक समुन्नत करना सरल होता। धन और वासना का प्रलोभन छूट सकता है, परन्तु लोकषणा, प्रसिद्धि और बड़प्पन का लोभ त्यागी कहे जाने वालों से भी नहीं त्यागा जाता । कहा भी है ___ कंचन तजबो, सहज है, सहज त्रिया को नेह । मान, बड़ाई, ईर्ष्या, दुर्लभ तजबो एह ॥ वाहवाही और नामबरी के लिए ओछे उपायों का अवलम्बन लेना उतना ही हेय है, जितना धन और वासना की पूर्ति अनैतिक उपायों से करना।

Loading...

Page Navigation
1 ... 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282