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लोकषणा और वित्तषणा के कुचक्र
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सम्प्रदाय उपसम्प्रदाय या पंथ में समकित-बदली की जाती है। इस प्रकार की वित्तषणा और लोकैषणा के कारण कई साधु तो रात-दिन इसी उधेड़बुन में, इसी फिराक में और इसी प्रकार की जोड़ तोड़ करने में लगे रहते हैं। उनको इनकी चिन्ता इतनी अधिक सताती है कि वे अपना आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण या आत्मशोधन जरा भी नहीं कर पाते । यह विचारणीय है।
महत्त्वाकांक्षा : कैसी उचित, कैसी अनुचित ? उन्नति की आकांक्षा स्वाभाविक एवं आध्यात्मिक मनोवृत्ति है। तुच्छता या क्षुद्रता से आगे बढ़कर महत्ता को प्राप्त करना स्वाभाविक है। नैतिक और आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आत्म-साधना या आराधना में आगे बढ़ने की आकांक्षा का औचित्य है। परन्तु यह आकांक्षा तभी सफल हो सकती है, जब उक्त महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति में धैर्य, साहस, विवेक, तथा शुद्ध धर्माचरण में पुरुषार्थ का उचित सम्मिश्रण हो।
ऐसी महत्त्वकांक्षा गुणों की होनी चाहिए । उत्तम क्षमा आदि दशविध धर्म, समता, साधुता, संयमशीलता, आदि तथा प्रसन्न मन और स्थिर चित्त आदि गुणों के होने पर ही महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हो सकती है। किन्तु उन्नति की आकांक्षा अपनी योग्यता, एवं गुणों को देखकर होनी तो उचित हैं, किन्तु गुणवत्ता या योग्यता के बिना ही बेसुरा राग अलापना कथमपि उचित नहीं है ।
लोकषणा की इस दुष्प्रवृत्ति के कारण सार्वजनिक अथवा लोकसेवा का जीवन, अथवा धार्मिक क्षेत्र भी अत्यधिक गंदा, विकृत और मलिन होता चला जा रहा है। धार्मिक जगत् में त्यागी कहे जाने वाले लोग यदि अपनी लोकैषणा का त्याग कर सके होते तो भारत की धर्मप्रधान जनता का जीवन चारित्र की दृष्टि से कहीं अधिक समुन्नत करना सरल होता। धन और वासना का प्रलोभन छूट सकता है, परन्तु लोकषणा, प्रसिद्धि और बड़प्पन का लोभ त्यागी कहे जाने वालों से भी नहीं त्यागा जाता । कहा भी है
___ कंचन तजबो, सहज है, सहज त्रिया को नेह ।
मान, बड़ाई, ईर्ष्या, दुर्लभ तजबो एह ॥ वाहवाही और नामबरी के लिए ओछे उपायों का अवलम्बन लेना उतना ही हेय है, जितना धन और वासना की पूर्ति अनैतिक उपायों से करना।