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________________ १६८ अमर दीप . रातभर वृक्ष के नीचे बैठकर इस पर चिन्तन-मनन करता रहा। आधीरात के बाद सेठ की अर्न्तदृष्टि खुली, तब इसका रहस्य समझ में आया इस निष्कर्ष पर पहँचा कि मैंने दान से तो कोठा खाली किया, किन्तु मान से फिर अपना कोठा भर लिया । सर्वस्व दे डाला, फर गर्व नहीं गया । यही तो नशा था। मुनिवर मेरे उपकारी हैं, कि उन्होंने मेरा दोष निकालने के लिए ऐसा किया था। पश्चात्ताप से अश्रुधारा बह निकली। विनम्र होकर सेठ ने प्रातः मुनिचरणों में मस्तक रखकर क्षमा माँगी । मुनिवर ने कहा"वत्स ! अब तू सुपात्र है शान्ति और समाधि पाने का अधिकारी है।" हाँ, तो पहले सेठ के जीवन में वित्तषणा थी, वह मिटी तो लोकैषणा आगई किन्तु अन्तर्दृष्टि खुलने पर वह भी मिट गई । लोकैषणा और वित्तषणा दोनों सगी बहनें आज मानव-मन प्रायः दोनों प्रकार की क्षुधाओं का शिकार हो रहा है। जब तक लोकैषणा है, तब तक उसके लिए वित्तषणा भी जरूरी है । क्योंकि प्रसिद्धि के लिए सम्पत्ति का होना अनिवार्य है। प्रसिद्धि के अनुरूप कार्य न करके भी मनुष्य सम्पत्ति से प्रसिद्धि को खरीद लेता है। कई लोग एक बार प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद उसका उपयोग सम्पत्ति बटोरने में करते हैं । अतः लोकषणा और वित्तषणा दोनों सगी बहनें हैं। एक के सद्भाव में दूसरी आ ही जाती है। साधु जीवन में दोनों ही अनिष्टकारिणी : क्यों और कैसे ? वित्तषणा और लोकैषणा दोनों ही गृहस्थ-जीवन और साधु-जीवन दोनों में अनिष्टकारिणी हैं। साधु जीवन में वित्त के नाम पर सोना चाँदी या सिक्के आदि तो नहीं, किन्तु उपाश्रय, मकान, वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि साधन भी वित्त हैं। अगर उनकी अमर्यादित तुष्णा या वासना साधुजीवन में है तो वहाँ भी वित्तैषणा है। उसके साथ ही लोकैषणा भी चुपके से प्रविष्ट हो जाती है। ___ अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करने की होड़ साधक वर्ग में प्रायः चल पड़ी है। वे किसी न किसी बहाने से दूसरे के अनुयायी या भक्त को अपने तथाकथित चारित्र की क्रियाकाण्डों की या नकली बड़प्पन की छाप डाल कर उसकी भूतपूर्व समकित (गुरुधारणा) को बदलवा देते हैं। इस प्रकार की हेराफेरी का कारण वह लोकैषणा है, वही मिथ्या महत्वाकांक्षा है, वही प्रसिद्धि की वासना है जो विविधरूप में साधक जीवन में आकर वीतरागता की साधना के सत्व को चूस लेती है। जिस प्रकार राजनैतिक क्षेत्र में दल-बदली की जाती है उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी एक ही
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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