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लोकैषणा और वित्तैषणा के कुचक्र
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सेठ की पत्नी वृद्धावस्था में स्वर्गस्थ हो गई थी। उसका एकमात्र पुत्र अतुल खुले हाथों खर्च करता था - वेश्यागमन, शराब आदि व्यसनों में । सेठ की पुत्री व दामाद धन पाने की लालसा में सेठ की मृत्यु की कामना
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कर रहे थे । कर्मचारी भी घात में लगे थे । इसी से वह आकुल और उदास रहता था । ही रात को चैन ? वह जी नहीं रहा था, जीवन को ढो रहा था ।
सेठ यह सब कुछ जानता था, उसे न तो दिन में नींद थी, न
एक दिन नगरसे स्नानादि से निवृत्त होकर धारानगरी में विराजमान मुनि सकलकीर्ति के पास दर्शनार्थ गए। अपनी पूर्वोक्त दुःखगाथा मुनिजी के समक्ष प्रस्तुत की और उनसे ही सुखी एवं सन्तोषी जोवन-यापन करने की विधि पूछी ।
मुनिश्री ने पूछा- 'क्यों सेठ ! तुम्हारा संग्रहीत धन क्या तुम्हारे साथ परलोक में जाएगा ?'
सेठ ने कहा - 'नहीं !'
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मुनि - "तो फिर तेरा इस पर इतना मोह क्यों ? सच्चा सुख एवं संतोष चाहो तो धन का मोह छोड़ दे । पुत्रादि को जो देय है, उस अंश धन को देकर शेष धन परोपकार में लगा दे । जब यह कर चुके, फिर मेरे पास आ । मैं तुझे शाश्वत शान्ति का राजमार्ग बताऊँगा ।" वैसा ही करना स्वीकार करके नगरसेठ लौट गया। दूसरे दिन सेठ के बंद भण्डार और तिजोरियां खुल गई । सेठ के नाम से विद्यालय, अनाथालय और चिकित्सालय खुल गए । कवियों और पण्डितों को भी मुक्तहस्त से दान दिया । फलतः उन्होंने सेठ के खूब यशोगीत गाए । उसे इस युग का सबसे - बड़ा दानी घोषित किया। राजा भोज ने सालभर में जितना दान दियाथा नगरसेठ ने एक सप्ताह में उससे अधिक दान दे दिया । अतः प्रशंसकों और भाटों ने उन्हें दानवीर कर्ण का अवतार बताकर खूब प्रशंसा की । सेठ इन्हें सुन-सुनकर गर्व से फूल उठा । वित्तैषणा के साथ लोकैषणा का यह नशा बहुत ही जोरदार था । इसी अहंकार के नशे में चूर होकर सेठ मुनिश्री के
पास आया ।
मुनिश्री उसकी चाल ढाल से समझ गए । उन्होंने कहा – “सेठ ! तू इस समय नशे में चूर है । मेरे सामने से हट जा । रात भर सामने वाले वृक्ष के नीचे बैठ । कल प्रातः तुम से बात करूंगा ।"
सेठ ऐसी अप्रत्याशित बात सुनकर बहुत खिन्न हो उठा। नगर भर में प्रशंसा के गीत और सत्कार; यहां डाँट और दुत्कार ! यह सुनने को वह तैयार नहीं था ।