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अमर दीप
अशुभ वृत्तियाँ हैं - एक है वित्तैषणा, अर्थात् -- सम्पत्ति की भूख और दूसरी है - लोकैषणा, अर्थात् - प्रसिद्धि की भूख । प्रसिद्धि, प्रशंसा, यश-कीर्ति और प्रतिष्ठा ( सत्कार - सम्मान) आदि सबका समावेश लोकैषणा में हो जाता है । मैं भी कुछ हूँ, मेरी नामबरी हो, लोग मुझे जानें - आदर-सत्कार दें । लोगों की भीड़ मुझे घेरे रहे और मेरी वाहवाही करे, यही लोकैषणा है । इसी लोषणा के अन्तर्गत एक तीसरी एषणा है- पुत्रैषणा । गृहस्थों को संतानवृद्धि की एषणा होती है और साधु-साध्वियों को शिष्य - शिष्या, भक्त-भक्ता या अनुयायियों की संख्या अधिक से अधिक बढ़ाने की होड़ लगती है; अधिकाधिक लालसा होती है, इस तरह की फौज बढ़ाने की । संख्यावृद्धि के लोभ में क्वालिटी नहीं, क्वांटिटी ही मुख्यतया देखी जाती है । इस प्रकार संसार में वित्तैषणा और लोकैषणा का दौर चल रहा है, जिसके कारण आज गृहस्थ और साधु प्रायः अशान्त हैं ।
अर्हतर्षि याज्ञवल्क्य ने इन्हीं दो दुर्वृत्तियों की ओर इंगित करते हुए इनसे सबको सावधान रहने की चेतावनी दी है
"आणच्चा जाव ताव लोएसणा, जाव ताव वित्तेसणा; जाव ताव वित्तेसणा, ताव ताव लोएसणा । से लोएसणं च वित्तेसणं च परिण्णाए गोपणं गच्छेज्जा, णो महापणं गच्छेज्जा ।
Goraक्केण अरहता इसिणा बुझतं ।"
अर्थात् साधक को यह जानना चाहिए कि जब तक लोकषणा है, तब तक वित्तैषणा है और जब तक वित्तैषणा है, तब तक लोकैषणा है । साधक लोकैषणा और वित्तैषणा का परित्याग कर गोपथ से जाय, महापथ से न जाय, ऐसा याज्ञवल्क्य अर्हतर्षि बोले ।
वित्तैषणा के बाद लोकैषणा सवार हुई
कई बार मनुष्य को किसी कारणवश वित्तैषणा से विरक्ति हो जाती है । किन्तु उसके बाद उसे लोकैषणा धर दबाती है । मैं अपनी बात स्पष्ट करने के लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत कर दूं ।
धारानगरी के प्रसिद्ध राजा भोज का एक समवयस्क मित्र था, नगरसेठ सोमदत्त ! राजा की कीर्ति प्रचुर दान से फैली हुई थी, लेकिन सोमदत्त अत्यन्त कंजूस था । वह धन बटोरना जानता था, बाँटना नहीं । राजा भोज की मनःस्थिति उसके ज्ञान, दान और सम्मान के कारण वसन्त की-सी थी, परन्तु सोमदत्त सेठ की मनःस्थिति पतझर - सी थी, जिसमें न पत्ते थे, न फूल, ल केव ठूंठ ही बच रहा था ।