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आध्यात्मिक विकास का राजमार्ग १६१ "जो मुनि परीषहों (कष्टों) को देखकर कांप उठता है, दुःख का वेदन (अनुभव) करता है, क्षुब्ध हो जाता है, सचित्त द्रव्यादि से उनका सामना (प्रतीकार) करता है, स्पन्दित होता है, चंचल हो उठता है, उन दुःखों की उदीरणा करता है, क्रोधादि कषायजन्य भावों में परिणत होता है, वह अध्यात्मज्ञानी त्राता (आत्मरक्षक) नहीं है। परन्तु जिस साधक को परीषह आने पर न तो कंप-कंपी छूटती है, न ही वह दुःख महसूस करता है, तथा जिसे उस समय क्षोभ, संघटन, स्पन्दन, चंचलता, उदीरणा आदि नहीं होती। और जो कषायजन्य उन उन भावों में परिणत नहीं होता है, वही वास्तविक अध्यात्म ज्ञानी त्राता मुनि है, क्योंकि त्रायी (रक्षक) मुनि में परीषहों के आने पर कम्पन, वेदन आदि कोई भाव नहीं होते । ऐसा त्रायी मुनि ही अपने आपका तथा दूसरी आत्माओं का चतुर्गतिक, संसार रूपी अरण्य से रक्षण करता है।
वास्तव में, साधना पथ पर पैर रखने पर कदम-कदम पर कष्टों और संकटों का सामना करना पड़ता है। उस समय संयम मार्ग से विचलित हो जाए, धैर्य खो दे, अथवा दुःख महसूस करने लगे, कष्ट का नाम सुनते ही कांप उठे, अथवा कष्ट से बचने के लिए सावध उपाय खोजे, वह संयम पथ से भटक जाता है । सचमुच ऐसे साधक के जीवन में अध्यात्मज्ञान पचा हुआ न होने से सही माने में अपनी आत्मा का रक्षक नहीं होता, दूसरों का रक्षक तो हों ही कैसे सकता है ?
जो साधक अपने जीवन संग्राम में परीषहों से समभावपूर्वक जूझता है, उसके मन की समाधि भंग नहीं होती। वह पूर्वकृत कर्मों को नष्ट कर देता है, नये आते हुए कर्मो को रोक लेता है। उसे अपने शरीर, तथा शरीर से सम्बन्धित सजीव-
निर्जीव पदार्थो के नष्ट होने या वियोग होने की चिन्ता या ममता नहीं होती; क्योंकि वह इन्हें आत्मा से पृथक् मानता है। वही सच्चा फकीर है। कहा भी है
"फिकर सबको खा गई, फिकर सबका पीर । फिक्र का फाका करे, वो ही सच्चा फकीर ॥" "एहनु नाम फकीर जेनी मेरू सरखी धीर ।।"
सच्चा फकीर वही है, जो आत्मा का श्रेय करे, शान्ति और धैर्य रखे। इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, तथा अनिष्ट वस्तु का संयोग हो, तो भी समभाव रखे।
___ मार्गदर्शक पुरुषार्थो कुशल नेता आवश्यक है परन्तु ऐसे अध्यात्मज्ञान या अध्यात्म विकास के लिए कुशल मार्ग