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मिथ्या श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा १४३ श्रमण' कहलाते थे । इसी तरह 'तापस श्रमण' जटाधारी, जंगलों में रहने वाले संन्यासी भी 'श्रमण' होते थे और गैरिक श्रमण गेरुए रंग के वस्त्र पहने त्रिदण्ड धारण किये रहने वाले संन्यासी भी 'श्रमण' ही कहलाते थे । प्रवचनसारोद्धार' आदि ग्रन्थों के उनका वर्णन आता है ।
तो इस प्रकार श्रमणों की पाँच परम्पराएँ पुराने समय में चल रही थीं । और उनकी विचित्र-विचित्र मान्यताएँ थीं । गोशालक नियतिवादी था, शाक्य श्रमण (बौद्ध) क्षणिकवादी थे । तापस श्रमणों की मान्यताओं का परिचय आज पुराने ग्रन्थों में नहीं मिलता, किन्तु लगता है यहाँ अर्हतर्षि ने तापस श्रमणों की इस प्रकार की अंधश्रद्धा की ओर संकेत किया है जो यह मानते थे कि मनुष्य कुछ भी पाप करे, किंतु अन्त में परमात्मा की शरण में चला जाये तो वह उसे उन पापों से मुक्त कर देता है । इसलिए ऋषि ने यहाँ श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों की ही इस श्रद्धा पर प्रहार किया है किपरमात्मा के प्रति भी पूर्वोक्त प्रकार की तथाकथित दुःखमुक्ति की श्रद्धां रखकर नहीं `चलना चाहिए, और न ही संसार के इन सम्बन्धीजनों यां सम्बन्धों के प्रति कोई वैसी श्रद्धा करे क्योंकि सांसारिक सम्बन्ध स्वार्थ के धागों से बंधे हुए हैं ।
ऐसी अश्रद्धा का रहस्य : स्वकथन द्वारा
अर्हतषि तेतलिपुत्र के इस प्रकार की श्रद्धा के विरुद्ध कथन की गहराई में उतर कर देखा जाए तो ये उद्गार उस समय के हैं, जबकि एक ओर वे ईश्वरवादियों की सत्पुरुषार्थविहीन कोरी श्रद्धा एवं स्वजनों के प्रति पूर्वोक्त प्रकार की स्वार्थपरायण श्रद्धा से ऊब चुके थे । अपमान से त्रस्त होकर ही उन्होंने ये उद्गार निकाले थे । इस कथन के पीछे तेतलिपुत्र के उत्थान - पतन की रोचक अपबीती कहानी है ।
आत्मकथा की पूर्व भूमिका जैनागम ज्ञातासूत्र में विस्तृत रूप से वर्णित है ।
देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धाहीन कनकरथ राजा तेलीपुरका राजा कनकरथ ब्रह्मचर्यप्रेमी तथा रूपवती रानी पद्मावती पर अत्यन्त मुग्ध था । वह इतना कामासक्त था कि पद्मावती के यौवन को अखण्डित रखने और अपनी अधम सत्तालोलुपतावश पद्मावती से होने वाले अंग को खण्डित करा देता और उसे स्तनपान नहीं करने देता ।
पुत्र
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(क) प्रवचनसारोद्धार, द्वार ४, प्रथम भाग, गाथा ७३१ (ख) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग १, पृष्ठ ३८७