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अमर दीप
झुंझला उठता है । यही दशा तेतलिपुत्र की हुई । सम्मान का लबालब प्याला पिया हुआ तेतलिपुत्र सहसा अपमान की बौछार पाकर तिलमिला उठा । उसे भारी आघात लगा । ज्यों ही राजा कनकध्वज की कुर्सी के पास अपनी कुर्सी पर बैठने लगा, तब खड़ा होना तो दूर राजा ने घृणा से उसकी ओर से मुँह भी फेर लिया। यह तेतलिपुत्र के लिए असह्य हो उठा । उस समय के अपने मानसिक उद्गार स्वयं अर्हतर्षि तेतलिपुत्र प्रगट करते हैं । उनका भावार्थ यह है—
'परिजन सहित होते हुए भी मैं परिजन ( परिवार) रहित हैं, मेरे इस कथन पर कौन श्रद्धा करेगा ? पुत्र होने पर भी मैं पुत्ररहित हैं, ऐसा कहने पर कौन श्रद्धा करेगा ? इसी प्रकार मित्रों और स्नेहीजनों के होते हुए भी मुझे कौन मित्र- विहीन मानेगा ? मेरे पास धन होने पर भी मेरी धनहीनता पर कौन विश्वास करेगा ? परिग्रह होने पर भी मुझे परिग्रहहीन कौन मानेगा ? दान, मान, सत्कार और उपचार या उपकार से युक्त होने पर भी कौन मुझे इनसे पृथक मानने को तैयार होगा ?
" तेतलिपुत्र के स्वजन - परिजन उससे विमुख हैं, ' इस बात पर कौन विश्वास करेगा ? श्रेष्ठ जाति कुल में जन्मी हुई, रूपवती, विनय और उपकार की साकार प्रतिमा स्वर्णकार ( मूसिकार ) की पुत्री पोट्टिला मिथ्याभिनिवेश में पड़ गई। मेरे इस कथन को कौन सच मानेगा ? कालक्रम से नीति-शास्त्र-विशारद (अमात्य) तेतलिपुत्र विषाद में डूब गया, मेरे इस कथन पर कौन श्रद्धा करेगा ?"
वास्तव में, पोट्टिलादेव की देवीमाया से सभी स्वजन - परिजन आदि रुष्ट हो गए । अपनी कही जाने वाली रूपवती कुलीन पत्नी पोट्टिला स्वयं की उपेक्षा के कारण ज्ञातासूत्र में वर्णित कथा के अनुसार ) अमान्या ( अनिष्ट) हो गई । अतः पोट्टिला ने साध्वी पतिव्रता का उपदेश सुना, संसार से विरक्त हुई और साध्वी के पास दीक्षित हुई। इसी को तेतलिपुत्र कहता है - मिच्छ विप्पडिवन्ना' अर्थात् दूसरे के झूठे बहकावे में आ गई । विषादग्रस्त मानव दुःख के क्षणों में सबको याद करता है । तेतलिपुत्र के हृदय में गहरा आघात लगता है और वह जीवन से ऊबकर आत्म हत्या करने लगता है । किन्तु वह विफल हो जाता है । इसी पर अर्हतषि तेतलिपुत्र के मनोभावों को पढ़िए
" अमात्य तेतलिपुत्र ने घर में प्रविष्ट होकर तालपुट विष खा लिया किन्तु वह विष भी उसके लिए विफल होगया । मेरे इस कथन पर कौन विश्वास करेगा? तत्पश्चात् मंत्री तेतलिपुत्र एक विशाल वृक्ष पर चढ़ कर गले