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आध्यात्मिक विकास का राजमार्ग
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आध्यात्मिक ज्ञान की श्रेष्ठता
मुनि आत्म-शोधक होता है, वह वीतराग धर्म का पथिक है। आध्यात्मिक शान्ति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान परम आवश्यक है । शास्त्रों में यत्र-तत्र साधु के लिए कहा गया है-'अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' अर्थात्वह आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता था। हाँ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई भाषा ज्ञान प्राप्त करना चाहे तो सहायक के रूप में कर सकता है। परन्तु उसी को मुख्य मानकर झूठा आध्यात्मिक ज्ञान बघारे, आचरण रहित आध्यात्मिक ज्ञान का तोता-रटन करे तो वह आध्यात्मिक ज्ञान वास्तविक सहीं है। योगीश्वर आनन्दघनजी आध्यात्मिक ज्ञान को महत्व देते थे। उनके रोम-रोम में आध्यात्मिक ज्ञान किस प्रकार रम गया था ? उनके जीवन की एक घटना से ज्ञात हो जाएगा
योगीश्वर आनन्दघनजी आध्यात्मिक पुरुष थे । वे शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् मान कर एकमात्र आत्मा की, आत्म-विकास या आत्महित की साधना करने के लिए बस्ती को छोड़कर एकान्त जंगल में चले गये थे, वहीं वे ध्यानमग्न रहने लगे। उन्हें कुछ दिनों के लिए लोक-संग, जनासक्ति एवं संघ के प्रति ममत्व से दूर रहकर एकमात्र आत्मध्यान एवं आत्मचिन्तन करने का अभ्यास पक्का करना था। उनके एक योगी-मित्र को अतिदीर्घकालिक साधना के पश्चात् सोना बनाने की विद्या (लब्धि प्राप्त हई थी। अपनी विद्या (लब्धि) के बल से वे एक ऐसा रसायन बना सकते थे जिसकी एक बूद लाखों मन लोहे पर डाल देने से सोना हो जाता था।
उस योगी ने अपने मित्र योगीश्वर आनन्दघनजी को वह रसायन एक कुप्पी में भर कर अपने शिष्य के साथ भेजा । श्री आनन्दघनजी उस समय आत्म-ध्यान में मस्त थे । ध्यान पूरा होते ही योगी मित्र के शिष्य ने उक्त रसायन की कुप्पी आनन्दघनजी के चरणों में रखी और उसके प्रभाव की बात कहकर वह भेंट स्वीकार करने की प्रार्थना की। इस पर आनन्दघनजी ने पूछा- क्या इसमें आत्मा है ?' शिष्य बोला-'महाराज ! आप भी कैसी बचकानी बात करते हैं। केवल आत्मा-आत्मा की रट लगा रहे हैं। मेरे गुरु जैसी सिद्धि तो दिखाइये । इस भेट में आत्मा नहीं है । परन्तु आपके मित्र-योगी ने मेरे साथ भेजी है, अतः इस भेंट को स्वीकार कीजिए।'