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अमर दीप
त्मिक विकास के उदाहरण हैं। इन्होंने इसी जन्म में ज्ञानादि गुणों में पुरुषार्थ करके आध्यात्मिक विकास किया था। इसी प्रकार दृढ़प्रहारी, संयती राजर्षि, नन्दीषण मुनि आदि के उदाहरण भी विवेकजनित आध्यात्मिक विकास के हैं।
नमि राजर्षि की परीक्षा लेने के पश्चात् उनके आध्यात्मिक विकास की प्रशंसा करते हुए इन्द्र कहता है
अहो ! ते निज्जिओ कोहो, अहो ! माणो पराजिओ। अहो ! ते निरक्किया माया, अहो ! लोभो वसीकओ॥ अहो ! ते अज्जवं साह, अहो ! ते साहु मद्दवं । अहो ! ते उत्तमा खंती, अहो ! ते मुत्ति उत्तरा ।। इहंसि उत्तमो भंते ! पेच्चा होहिसि उत्तमो। लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धि गच्छसि नीरओ ।।
अर्थात्-अहो ! आपने क्रोध को जीत लिया है, और हे ऋषिवर ! आपने मान को भी पराजित कर दिया । अहो ! माया को भी पछाड़ दिया है आपने और लोभ को भी वश में कर लिया है। अहो ! आप में कितनी उत्तम सरलता है ! कितनी मृदुता है। अहो! आप में उत्तम क्षमा है, अहो ! आपकी निर्लोभता उत्तम है। भगवन् ! आप यहाँ भी उत्तम हैं, और परलोक में भी उत्तम होंगे तथा भविष्य में कर्मरज से रहित होकर लोक के अग्रभाग पर उत्तम सिद्धिस्थान को प्राप्त करेंगे।
निष्कर्ष यह है कि आत्मिक विवेक की प्रचुरता ही आध्यात्मिक विकास का थर्मामीटर है। इसी आत्मिक विवेक को दूसरे शब्दों में आध्या. त्मिक ज्ञान कह सकते हैं। लौकिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान में महान अन्तर
___ इसी आध्यात्मिक ज्ञान का प्रबल समर्थन करते हुए ग्यारहवें अध्ययन में अर्हतर्षि मंखलीपुत्र ने कहा है
सिट्ठायणेव्व आणच्चा अमुणी संखाए अणच्चा एसे तातिते। मंखलीपुत्तेण अरहता इसिणा बुइयं ।
इसका भावार्थ यह है कि वीतराग की आज्ञा प्राप्त करने के लिए सिर्फ लौकिक ज्ञान को प्राप्त करने वाला शिष्टजन अमुनि हो जाता है । लौकिक ज्ञान का अध्ययन छोड़कर आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने वाला मुनि वास्तविक त्रायी - आत्मरक्षक होता है।