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अमर दीप
करना, क्षुधातुर का भोजन करना, दूसरे को पराजित करने की कामना वाले व्यक्ति का शस्त्रकार्य अर्थात्-शस्त्र विद्या का अध्ययन सम्भव है, किन्तु क्षान्त, दान्त, तीन गुप्तियों से गुप्त, जितेन्द्रिय के लिए (पहले बताया हुआ प्रपातादि) इन भयों में से एक भी भय सम्भव नहीं है। तेतलिपुत्र का मोह का नशा उतरा
इससे पर्व पोटिटलदेव ने जो संसार और गृहस्थाश्रम को विभिन्न अग्नियों से प्रज्वलित बताकर तेतलिपुत्र को भयभीत एवं विरक्त किया था, इस पर तेतलिपुत्र ने कहा था कि भयभीत मनुष्य को प्रब्रज्या ग्रहण करना ही उचित है। यह सुनकर पोट्टिलदेव ने प्रेरणा दी-'आपने अपने मुह से ही संयम लेने की बात स्वीकार की है, अतः अब आनाकानी क्यों कर रहे हैं ?'
तेतलिपुत्र को पोट्टिला की बोधधारा गले उतरी। उसे गम्भीर विचारपूर्वक आध्यात्मिक प्रतिबोध हआ। अब किसी प्रकार का जाति आदि गर्व नहीं रहा । दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का प्रभाव इस बोध से समाप्त हुआ। तेतलिपुत्र को आन्तरिक सौन्दर्य के दर्शन हुए। त्याग-पिपासा जगी। संसार से विरक्ति तो हुई, परन्तु हृदय में चुभा हुआ अपमान का. कांटा अभी खटक रहा था। पोट्टिला ने उस भ्रान्ति का पर्दा हटाते हुए समझाया-"आपने जो अपमोन का दृश्य देखा, वह सिर्फ इन्द्रजाल था, एक प्रकार का नाटक था, वह वास्तविक नहीं था। वह तो मैंने तुम्हें प्रतिबोध देने के लिए चमत्कार प्रयोग किया था, वास्तव में यह सब मिथ्या भ्रमजाल था।" मोक्ष मार्ग पर दृढ़श्रद्धा, प्रव्रज्या और सिद्धि ..
अब तेतलिपुत्र को पोटिला की सारी बात समझ में आई। उसने पोटिला का बहुत उपकार माना कि उसने मिथ्या मोहमाया-जाल से मुक्त किया।
__मोक्षामार्ग पर तेतलिपुत्र की श्रद्धा दृढ़ हुई। कहते हैं-तेतलिपुत्र को जातिस्मरण-ज्ञान हुआ । अब पूर्णरूप से उसका आत्मसमाधान हो गया था । अतः त्यागमार्ग की प्रतीक भागवती दीक्षा अंगीकार की। उत्तरोत्तर तप-संयम की आराधना से परम आत्मिक-विकास करके उसने केवलज्ञान और आत्मसिद्धि प्राप्त की।