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१४२ अमर दीप
स्वयं कृतं कर्म, यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटम्, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।
-(आचार्य अमितगति) आत्मा ने पूर्व में जो कुछ कम स्वयं ही किये हैं, उन्हीं का शुभाशुभ फल वह प्राप्त करता है। यदि अपने किये हुए कर्मों का फल दूसरा देता है तो स्पष्ट है कि स्वकृत कर्म निरर्थक हो जायेगा, अर्थात्-फिर तो स्वयं किये हुए अच्छे-बुरे कर्म के अनुसार फल न मिल कर दूसरे के द्वारा किसी बाहरी शक्ति की इच्छानुसार शुभाशुभ फल मिलेगा तब अपने द्वारा किये हुए कर्मों का क्या होगा? ऐसी श्रद्धा से सावधान !
वास्तव में, ईश्वर न तो किसी को दुःख देता है और न ही किसी के अपने किये हुए कर्मोदयवश आए हुए दुःख या संकट का ही निवारण करता है । इस दृष्टि से, यानी इस प्रकार की अन्धमान्यता से अर्हतर्षि तेतलिपुत्र परमात्मा पर या देव, गुरु एवं धर्म पर विपरीत श्रद्धा के खिलाफ खड़े होकर कहते हैं
सद्धेयं खलु भो समणा वदंती, सद्ध यं खलु माहणा, अहमेगो असद्ध यं वदिस्सामि । तेतलिपुत्रोण अरहता इसिणा बुइयं ॥
'श्रमण कहते हैं कि श्रद्धा करनी चाहिए, माहन (ब्राह्मण) भी कहते हैं कि श्रद्धा करनी चाहिए परन्तु मैं अकेला कहता हूँ कि श्रद्धा नहीं करनी चाहिए इस प्रकार अर्हतर्षि तेतलिपुत्र ने कहा।'
यहाँ पर तेतलीपुत्र अर्हतर्षि ने श्रद्धा और अन्धश्रद्धा में एक बहुत बड़ी रेखा खींच दी है। उनका कथन है कि कुछ श्रमण भी इस श्रद्धा (या अन्ध श्रद्धा) में डूबे हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है, होगा वह सब नियतिभाग्य (या परमेश्वर) की इच्छा से ही होता है । मनुष्य तो नियति के हाथ की कठपुतली मात्र है।
आप पूछोगे-श्रमण (यानी निर्ग्रन्थधर्म-जैनधर्म) तो यह बात नहीं कहता। किन्तु आपको पता होना चाहिए प्राचीन समय में श्रमणों की अनेक परम्पराएँ थीं। हम वीतराग देव के अनुयायी श्रमण निर्ग्रन्थ श्रमण कहलाते थे, जबकि तथागत बुद्ध के अनुयायी 'शाक्य-श्रमण' नाम से प्रसिद्ध थे। गोशालक भी श्रमण परम्परा का आचार्य था। उसके अनुयायी 'आजीवक