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मिथ्या श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा
धर्मप्रेमी श्रोताजनो !
ऋषिभाषितानि के प्रवचन- क्रम में आज मैं आपके सामने एक नये विषय पर प्रकाश डालना चाहूँगा । वह विषय है आत्म-श्रद्धा और
परमात्म-श्रद्धा ।
संसार में प्राय: जितने धर्म हैं, सभी ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं । ईश्वर या परमात्मा में सभी की श्रद्धा है, विश्वास है। किंतु कुछ लोग जो ईश्वर को कर्ता हर्ता मानते हैं, उनका कहना है- ईश्वर अनन्त शक्तिमान है, वह चाहे जिसको सुखी कर सकता है, चाहे जिसको दुःख दे सकता है । सारा संसार उसी की इच्छा से चलता है ।
कुछ लोग हैं जो ईश्वर को सिर्फ द्रष्टा मानते हैं । उनका विश्वास है,. संसार में जो भी सुख-दुख है वह अपना किया हुआ है । हमारा आत्मा यदि सत्कर्म करता है तो उसका फल सुख रूप में प्राप्त होता है, आत्मा यदि असत्कर्म करता है तो उसका फल दुःख रूप में मिलता है । ईश्वर इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता । यह नहीं होता कि आपने जहर खा लिया और फिर ईश्वर से प्रार्थना करें कि हे परमात्मा मुझे मरने मत देना ! मुझे जिला देना ! अपने मिर्च खाई है तो मुँह जलेगा । आपने मीठा खाया है तो मुँह मीठा होगा। इसमें ईश्वर क्या करेगा ?
भारतवर्ष में बहुत पुराने समय से ये दोनों ही विचारधारा चली आ रही हैं । ईश्वर को कर्ता मानने वाले सब कुछ उसी के भरोसे छोड़ देते हैं । ईश्वर को द्रष्टा मात्र मानने वाले आत्मा को सुख-दुःख का कर्ता मानकर कर्म-फल में विश्वास करते हैं । श्रमण परम्परा में निर्ग्रन्थ धर्म आत्मा को कर्ता मानकर कर्म एवं कर्मफल में विश्वास करता है । जैन धर्म का यह दृढ़ विश्वास है । कि
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य
सुख और दुःख का करने वाला आत्मा ही है । आत्मा जैसा कर्म करता