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मिथ्या श्रद्धा और सम्यक् श्रद्धा १४१ है उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। ईश्वर या परमात्मा उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता।
जो लोग ईश्वर को कर्ता-हर्ता मानते है वे कहते हैं-ईश्वर में श्रद्धा रखो ! जो आत्मा को कर्ता मानते हैं, वे कहते हैं-आत्मा में श्रद्धा रखो !
प्रस्तुत प्रकरण में तेतलीपुत्र अर्हतर्षि का प्रवचन है। यह ऋषिभाषितानि का दसवाँ अध्ययन है। इसमें ऋषि ने इसी बात पर बल दिया है कि कर्मों का कर्ता आत्मा है ? सुख-दुख पाने वाला आत्मा स्वयं ही है।
"को कं ठावेइ अण्णत्थ, सगाई कम्माइं इमाइं।"
-कौन किस को (अपने आत्मभाव से) अन्यत्र (दुःख के कारणभूत स्थानों में) स्थापित करता है ? मेरे अपने कर्म ही हैं; (जो मुझे बन्धन में डाल कर दुःख के दलदल में फँसाते हैं, उनसे मुक्त होने की शक्ति भी स्वयं मुझ में है ।)
___ यह तो तो सर्वविदित है कि संसार के समस्त मानव अपने ही दोषों के कारण बन्धन में पड़ते हैं। परमात्मा न तो किसी को बन्धन में डालते हैं, न ही दुःख देते हैं, और न ही दुःखों से मुक्त करने का दायित्व उन पर है। अपने दुःखों, कष्टों और संकटों के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेवार है। बाहरी शक्ति न तो किसी को बन्धन में डालकर दुःख देती है और न ही किसी के दुःख को दूर कर सकती है, अथवा बन्धनमुक्त कर सकती है। एक मस्त कवि कविता की भाषा में कहता है
सखे ! तू न बीच में बोल ! स्वयं बंधा हूँ, स्वयं खुलूंगा अपना हृदय टटोल ।
प्रस्तुत सूत्र वाक्य में अर्हतर्षि अपने जीवन में अनुभूत तत्व बतला रहे हैं कि मैं अब तक भ्रम में था। मैं यह समझता था कि मुझ पर जो अगणित दुःख और विपत्ति, संकट और मुसीबतें आई हैं, वे परमात्मा ने दिये हैं अथवा मेरे स्वजन-परिजनों ने मुझे अपमानित करके संकट में डाला है।
मैं सुख-सुविधाओं और विलासिता में मग्न रहकर स्वयं को, अपने ही पुरुषार्थ से, अपने ही अहंकार वश सुखी मानता था। उस समय तो मैं परमात्मा को भूल गया था, अहंकर्ता के अभिमान में पड़ कर अपने आप को ही सर्वेसर्वा तथा राज्य का कर्ता-धर्ता मानता था। परन्तु अब मेरी आँखें खुलीं। मुझे सूर्य के उजाले की तरह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि परमात्मा किसी को दुःख नहीं देते, न ही संकट में डालते हैं, और न ही वीतराग प्रभु किसी के अपने किये हुए दु:ख, विपत्ति और संकटों को नष्ट करते हैं । सत्य यह है कि