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१२८ अमर दीप तथा (२) पहले नये कर्मों को संवर द्वारा आने से बिलकुल रोक देना, चाहिए, और (३) तपोजन्य (इहलौकिक पारलौकिक कामना-रहित तप के द्वारा होने वाली) कर्म-निर्जरा करे । इन तीन सावधानियों के अतिरिक्त और भी ६ सावधानियों की ओर अर्हतर्षि इंगित करते हैं । वे इस प्रकार
अंकुरा खंध-खंधीया जहा भवइ वोरहो। कम्मं तहा तु जीवाणं सारासारतरं ठितं ॥११॥ उवक्कमो य उक्केरो संछोभो खवणं तथा । बद्ध-पुट्ठ-निधत्ताणं, वेयणा तु निकाइते ॥१२॥ उकडढंतं जधा तोयं, सारिजंतं जधा जलं । संखविज्जा निदाणे वा पावकम्म उदीरती ॥१३॥ अप्पा ठिती सरीराणं बहु पावं च दुक्कडं। पुव्वं बज्झिज्जते पावं, तेण दुक्करं तवोमयं ॥१४॥ खिज्जते पावकम्मानि, जुत्तजोगस्स धीमतो।. देसकम्मक्खयन्भूता जायंते रिद्धियो बहू ॥१५॥ विज्जोसहि-णिवाणेसु, वत्थु-सिक्खा-गतीसु य । तव-संजम-पयुत्ते य, विमहे होति पच्चओ ॥१६॥ दुक्खं खवेति जुत्तप्पा, पावं मीसे वि बंधणे। . जधा मीसे वि गाहंमि, विसपुप्फाण छड्डणं ॥१७॥ समत्तं च दयं चेव सममासज्ज दुल्लहं। ण प्पमाएज्ज मेधावी मम्मगाहं जहारियो ॥१८॥
अर्थात्-अंकूर से स्कन्ध बनता है और स्कन्ध से शाखायें फूटती हैं, उससे वह विशाल वृक्ष बनता है। आत्मा के शुभ-अशुभ कर्म भी इसी प्रकार विकसित होते हैं।
--बद्ध, स्पृष्ट और निधत्त रूप में बंधे हुए कर्मों का उपक्रम, उत्कर, संक्षोभ और क्षय हो सकता है, किन्तु निकाचित कर्म का वेदन (फलभोग) अवश्य होता है।
-अंजली में भरकर ऊपर उठाया जाने वाला तथा ले जाया जाता हआ पानी धीरे-धीरे क्षय होता जाता है, (इसी प्रकार बद्ध, स्पृष्ट और निधत्तरूप कर्मजल भी धीरे-धीरे क्षय हो जाता है) किन्तु निदानकृत कर्म अवश्य ही उदय में आता है।