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१३६ अमर दीप
अर्थात्-(सिद्धिगति प्राप्त करने से पूर्व) आवर्जन, समुद्घात, योगों का निरोध और शैलेशीकरण के द्वारा आत्मा सर्वकर्मक्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है।
-जलप्रवाह के बीच में रही हुई नौका के समान कर्म-लेपरहित अनाकुल आत्मा सिद्ध होता है।
-(सिद्धस्थिति में) पूर्व (संसारी अवस्था) के काया, वाणी और मन रूप से पृथक् एक ही आत्मद्रव्य रहता है। कर्म-जन्य भावों का वहाँ अभाव है। आत्मा के क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तसुख, तथा सत्त्व-प्रमेयत्व आदि पारिणामिक भाव ही वहाँ होते हैं। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भावों का वहाँ अभाव होता है। साथ ही भव्यत्वरूप पारिणामिक भाव भी वहाँ नहीं होता। आगमों में सिद्धप्रभु को 'भव्याभव्य' कहा है, क्योंकि वे सिद्धस्थिति प्राप्त हैं। अत: उनमें अब भव्यत्व रहा ही कहाँ है ? सिद्धदशा में योगों का अभाव है। मुक्तात्मा में पुनरागमन नहीं है, भवपरम्परा का हेतु कर्म उनमें नहीं है।
-सिद्धात्मा लोकाग्र में स्थित होते हैं क्योंकि आत्मा आगे (अलोक में) नहीं जा सकता, उससे ऊपर अवग्रहस्थान का अभाव है। समस्त आवरण के क्षय होने से सिद्धात्मा परमसुख में अवस्थित है। अस्तिलक्षणं से सद्भावशील है, (अर्थात्-वहाँ आत्मा का अभाव नहीं होता), और वह परम नित्य और शाश्वत है।
-संसार की समस्त देहधारी आत्माओं को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से नित्य और अनित्य जानना चाहिए ।
-गम्भीर, सर्वतोभद्र (सदैव सबके लिए कल्याणकारी), समस्त भावों के प्रकाशक, अन्तर् की गुफाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वज्ञ-निरूपित धर्म का जो सम्यक् प्रकार से अनुभव करते हैं, अथवा सम्यक् रूप से पहचानते हैं वे आत्माएँ धन्य हैं।
आशय यह है कि सिद्धि-मुक्ति प्राप्त करने से पूर्व आत्मा शक्लध्यान की परमतपोऽग्नि के द्वारा चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करता है, उसी का क्रम बतलाते हुए अर्हतर्षि कहते हैं—सर्वप्रथम आवर्जन-क्रिया होती है। उदयावलिका में अप्राप्त कर्मों को उदयावलिका में प्रक्षेपण करना आवर्जन-क्रिया है । जब आयु अल्प हो और वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म अधिक हों, तब केवलीप्रभु आयुष्य को सम स्थिति में लाने के लिए समुद्घात करते हैं, क्योंकि आयु के बिना आत्मा शरीर में रह नहीं