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जन्म-कर्म - परम्परा की समाप्ति के उपाय १२५
अशन (अन्न) (२) पान ( जलादि पेय पदार्थ), (३) खादिम ( पक्वान, मेवा आदि) तथा ( ४ ) स्वादिम ( मुख को सुवासित करने वाले इलायची आदि पदार्थ ) - इन चारों प्रकार के आहार का अथवा पानी के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है ।
श्रेणी तप, प्रतर तप आदि के भेद से यह ६ प्रकार का 1
(२) ऊनोदरी - का अर्थ है भूख से कम खाना । इसके भी दो भेद हैं - (१) द्रव्य ऊनोदरी और (२) भाव ऊनोदरी । द्रव्य ऊनोदरी में आहार, उपधि आदि को कम किया जाता है और भाव ऊनोदरी में कषायों, रागद्वेष, चपलता आदि दोषों को कम करना अपेक्षित है ।
(३) भिक्षाचरी - यह तप विशेष रूप से साधुओं के लिए है क्योंकि वे ही भिक्षाचर्या द्वारा क्षुधा निवृत्ति करते हैं । साधुओं को सभी प्रकार से निर्दोष भिक्षा लेने का विधान है ।
गृहस्थ के लिए वृत्ति परिसंख्यान तप बताया गया है । इसके अन्तर्गत श्रावक अपने आहार द्रव्यों की संख्या में कमी करके अपनी आहार-वृत्ति को संकुचित करता है ।
(४) रस- परित्याग — इसमें रसों का - सरस भोजन का त्याग अपेक्षित है । स्वादिष्ट और इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले आहार का त्याग साधक अपनी शक्ति और क्षमता - योग्यता के अनुसार करता है ।
(५) कायक्लेश- इसका अर्थ है - शरीर को सुविधावादी न बनने देना । जितना सम्भव हो, अधिक से अधिक इस शरीर का उपयोग धार्मिक क्रियाओं में करना ।
(६) प्रतिसंलीनता - इस तप में साधक अपने इन्द्रिय, शरीर, मन, वचन को विकारों से रोककर आत्माभिमुख करता है ।
(७) प्रायश्चित्त - अपने स्वीकृत व्रत-नियमों में भूल अथवा असावधानी से लगे पापों की - स्खलनाओं की आलोचना आदि करना । यह १० प्रकार का है ।
(८) विनय - का अर्थ है विनम्रता । इसके ७ उत्तर भेद हैं- ( १ ) ज्ञानविनय, (२) दर्शनविनय, (३) चारित्रविनय, (४) मनोविनय, (५) वचनविनय, (६) कायविनय और, (७) लोकव्यवहार विनय ।
(e) वैयावृत्य - इसका अर्थ है - सेवा । तपस्वी, ग्लान आदि साधकों की सेवा करना । उन्हें आहार - औषध आदि आवश्यक वस्तुएँ दिलाना । रोग के समय सेवा करके साता पहुँचाना ।