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दुःख-मुक्ति के आध्यात्मिक उपाय ८७ पूछने वाला व्यापारी इस जवाब को सुनकर दंग रह गया । वह अनेक वर्षों के बाद फिर इसी युवक से मिला । उसने देखा कि वह युवक गुलामी से मुक्त होकर अपने ही मालिक की पत्नी और बालकों का भरणपोषण कर रहा है। अब उसने पूछा-'क्यों भाई ! अब तो सुख है न?"
उसने कहा- “सख क्या और दःख क्या ? जीवन तो परिवर्तनशील है। जो आज है, वह कल रहने वाला नहीं है। मैं सदैव सभी परिस्थितियों में सुख में ही रहता हूँ।"
फिर तो उत्तरोत्तर वह युवक तरक्की करता गया। वह अपनी तेजस्विता, प्रतिभा, समझ, सेवा भावना और संयम की वृत्ति से एक दिन वहाँ के राजा का दामाद हो गया। उक्त व्यापारी ने अब उससे पूछा-"क्यों भाई ! अब तो पूर्ण सुखी हो गए न ?"
उसने कहा- 'मैं किस दिन अपूर्ण सुखी था? जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है और चला जाता है, इसी प्रकार इस जीवन के साथ सुख और दुःख की घटमाल चलती जाती है। इस सुख-दुःख की क्रिया को मन पर लाकर मैं उदास क्यों रहें ?"
___सही स्थिति यह है कि जिस जीवन में मन को सुख-दुःख से अलिप्त रखकर एक मात्र परमात्मा या आत्मा में ही मन को पिरो दिया जाता है, उसमें सुख-दु ख को कहीं स्थान नहीं होता। वास्तव में, सुख और दुःख को जीवनरूपी सिक्के की दोनों बाजू मानना चाहिए। एक कवि ने ठीक ही कहा है
सुख-दुःख दुःख-सुख दोनों साथ-साथ हैं। दोनों आत-जात हैं जी, दोनों आत-जात हैं ॥ध्र व ॥ दिनकर डूब गया, अंधियारा छा गया। उषा मुसकाई फिर, उजियाला आ गया। किसी वक्त दिन है, किसी वक्त रात है। दोनों ॥१॥ सूखा-सूखा पेड़ हुआ, रंगरूप खो गया। मधुऋतु आई फिर, हराभरा हो गया। पतझड़ मधुऋतु दोनों ना ठहरात हैं। दोनों ॥२॥ सागर में कभी भाटा, और कभी ज्वार है। सुख-दुःख दोनों मानो, बिजली के तार हैं। इन दोनों में बड़ी गहरी मुलाकात है। दोनों ॥३॥