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अमर दीप
एक ओर हो और दूसरी ओर आस्रव भी होता रहे वह है सोपादाना निर्जरा; तथा जिस निर्जरा के साथ कर्मों का आस्रव न हो, कर्म आवें ही नहीं, वह निरादाना निर्जरा है और वह निरादाना निर्जरा तपविशेष से होती है।
आप शायद उलझन में पड़ गये होंगे कि आस्रव और निर्जरा दोनों परस्पर विरोधी हैं, एक साथ दोनों कैसे हो सकते हैं। इस उलझन को मैं एक दृष्टान्त से सुलझा दूं
आपने ऐसी टंकी देखी होगी, जिसमें नल लगा होता है । आपके घरों में भी होगी। अब आप उसे नल के नीचे रख दीजिए और नल खोल दीजिए। टंकी में पानी भरने लगेगा। साथ ही टंकी का नल भी खोल दीजिए।
अब क्या स्थिति बनी? वह टंकी भर जायेगी या खाली हो जायेगी ? आप कहेंगे न वह भरेगी और न खाली ही होगी, क्योंकि उसमें ऊपर से जितना पानी भर रहा है, उतना ही नीचे से निकल भी रहा है। .
___ अब आप समझिये। आत्मा को टंकी मान लीजिए और पानी को कर्म-प्रवाह । भरता हुआ पानी आस्रव है और झरता हुआ निर्जरा । तो अब आस्रव और निर्जरा दोनों एक साथ हो रहे हैं।
मैं समझता है, आपके दिमाग की उलझन सुलझ गई होगी। इसी स्थिति को राजस्थानी की एक कहावत में बहुत ही संक्षेप में कह दिया गया है-ऊपर भरे, नीचे झरे।
गाथा १० में अर्हतर्षि ने भी यही बात कही है कि कर्मों का बंध भी सतत होता रहता है और निर्जरा भी सदा ही होती रहती है, संसारी जीव के आस्रव-बंध तथा. निर्जरा का क्रम कभी रुकता नहीं, सदा ही प्रवर्तमान रहता है।
कुछ लोग यह शंका करते भी हैं कि जब सदा ही निर्जरा होती है तो आत्मा मुक्त क्यों नहीं हो जाता ? तो भैया ! इसका उत्तर यह है कि एक ओर से आस्रव हो रहा है और दूसरी ओर निर्जरा भी चालू है तो मुक्ति कैसे हो ? ऐसी निर्जरा, जिसे अकाम निर्जरा कहा गया है, मोक्ष-प्राप्ति में सहायक नहीं होती।
एक भक्त कवि ने भी कहा है
काल पाय विध झरना, तासों निज काज न सरना । तप कर जो कर्म खपावे, सो ही अविचल गति पावे ॥