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११० अमर दीप
कमरे के अन्दर पहले से जमी हुई धूल या कमरे को 'झाडू आदि से बाहर निकालता है । इसी प्रकार सर्वप्रथम व्यक्ति को बाहर से आने वाले कर्मों (आस्रवों) के द्वार बंद करने चाहिए, तत्पश्चात् पहले से बंधे हुए कर्मों का निर्जरा के द्वारा क्षय करके आत्मा से पृथक् करना है ।
पुण्यास्रव और पापात्रव इन पाँच आस्रव द्वारों की संक्षिप्त पहचान आपको बताता हूँ । पहला आस्रव द्वार है मिथ्यात्व । मिथ्यात्व सबसे बड़ा दरवाजा है । यह प्राणी को अनेक उलटी और असत् कल्पनाओं में खींच ले जाता है । अविरति प्राणी को किसी भी प्रकार के पाप का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करने नहीं देती । कषाय आत्मा को क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त बनाता है, तथा मन वचन काया के दुष्टयोग पाप में प्रवृत्त करते हैं और प्रमाद आपको विषयों में आकर्षित करके धर्म साधना से विमुख करता है । ये पाँच पापात्र हैं, इनको रोकना अनिवार्य है ।
अब रहे पुण्यास्रव ये भी कथंचित् त्याज्य हैं, क्योंकि पुण्यास्रव भी पापास्रव की तरह संसार में परिभ्रमण कराने वाला है । किन्तु इनको छोड़ने के लिए प्रयत्न करने की जरूरत नहीं रहती । पुण्यकर्म तो प्राणी भोगते-भोगते या एकदम छोड़ सकता है । कठिन है पापकर्म का त्याग ! इसलिए सभी शास्त्र पापकर्म का त्याग करने का ही उपदेश देते हैं । अर्हत महाकाश्यप कहते हैंसंसार - संतमूलं पुण्णं पावं पुरेकडं ॥ पुण्ण- पाव निरोहाय सम्म संपरिव्व ॥ २ ॥
पुण्ण- पावस आयाणे परिभोगे यावि देहिणं । संतई-भोग - पाउग्गं
पुण्णं पावं सयंकडं ॥३॥
- पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार-संतति ( भवपरम्परा) के मूल हैं । पुण्य और पाप के निरोध के लिए साधक सम्यक् प्रकार से ( यतनापूर्वक ) विचरण करे ।
- देहधारी आत्मा को पुण्य और पाप के आदान ( ग्रहण) और उपभोग में योग्य वस्तुओं की प्राप्ति होती है, जो कि स्वकृत पुण्य (शुभकर्म ) और पाप (अशुभकर्म) के फलस्वरूप है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
होता है ।
रागो य दोसो विय कम्मबीयं ।
कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । - ३१ / १७
- राग और द्व ेष, ये दोनों कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न