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श्रवण का प्रकाश; आचरण में
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धर्मप्रेमी बन्धुओ !
पिछले प्रवचन में मैंने बताया था कि श्रवण आध्यात्मिक शिखर तक पहुँचने के लिए पहली सीढ़ी है । परन्तु प्रश्न यह होता है कि क्या धर्मश्रवण या सत्यश्रवण कर लेने मात्र से ही हमारा कल्याण हो जाएगा ? क्या श्रवण के द्वारा हेय, ज्ञेय और उपादेय को जान लेने मात्र से हमारा आध्यात्मिक विकास हो जाएगा ?
इसका समाधान करने के लिए ही अर्हतषि देवनारद श्रवण से आगे की भूमिका का निर्देश इसी अध्ययन में करते हैं । उनके कथन का आशय यह है कि श्रवण - श्रोतव्य श्रवण मोक्ष की पहली सीढ़ी अवश्य है, परन्तु उसके आगे की सीढ़ियों को पार किये बिना हम मंजिल नहीं पा सकते । अतः श्रवण के बाद उसका आचरण होना आवश्यक है। श्रवण बीज है तो सदाचरण पल्लवित वृक्ष है । बीज को खाद-पानी मिले, फिर भी वहाँ सदाचरण रूप वृक्ष के रूप में विकसित न हो, उस सदाचरण वृक्ष पर एक भी फल न आए तो श्रम और समय का अपव्यय ही माना जाएगा ।
एक विद्यार्थी पहली कक्षा से लेकर बारहवीं कक्षा तक गणित पढ़ता है । गणितशास्त्र के द्वारा वह हिसाब-किताब में प्रवीण हो जाता है और जब स्नातक ( ग्रेज्युएट) होकर विद्यालय से विदा लेकर अपने पिता के व्यवसाय को सँभालता है, उस समय उसके पिताजी उसे कोई हिसाब करने को कहते हैं, यदि उस समय वह यह कहे कि 'पिताजी ! यह हिसाब तो मुझे विद्यालय में आता था, यहाँ नहीं आता है', तो आप उस गणित के भूतपूर्व विद्यार्थी को क्या कहेंगे ? यही कहेंगे कि अगर वह गणितशास्त्र
निष्णात हो चुका है तो उसे वह हिसाब आना ही चाहिए । अथवा मालूम होता है, वह गणित की परीक्षा में नकल करके पास हुआ है, या परीक्षक को दक्षिणा देकर उसने गणित की परीक्षा में उत्तीर्णांक प्राप्त कर