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अमर दीप
सम्यग्ज्ञान और ज्ञानी के दोष निकालना, जिन शास्त्रों या ग्रन्थों से अथवा ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त हुआ है, उनके नाम छिपाना, ज्ञान और ज्ञानी के प्रति डाह करना, उनकी प्रशंसा और प्रसिद्धि सुनते ही ईर्ष्या के मारे जलना, ज्ञान सीखने-सिखाने में आशातना ( अविनय - अभक्ति) करना, ज्ञान के साधनों को तोड़ना-फोड़ना तथा ज्ञानी पुरुषों को मारना पीटना, उन्हें चोट पहुँचाना, ये सब ज्ञानावरणीय कर्म-बन्धन के कारण हैं ।
आपको यह भी बता दूँ कि इन सब ज्ञानावरणीय कर्म- बन्धनों का मूल अहंकार है - ज्ञानमद है - श्रुत-गर्व है ।
जातिमद और कुलमद भी विकास के अवरोधक
इसी प्रकार जाति और कुल का अहंकार भी साधना के मार्ग में विकास का अवरोधक है । जातिमद और कुलमद वाला साधक अपनी उच्चता का बखान जाति और कुल के माध्यम से करता है । परन्तु आपको पता होगा कि जाति और कुल कोई तात्विक वस्तु नहीं है, किसी हद तक ये साधना में सहायक होते हैं, किन्तु जब वे अपनी उच्चता और दूसरों की निम्नता प्रदर्शित करने के रूप में प्रयुक्त होते हैं, तब रत्नत्रय की साधना में बाधक हो जाते हैं । ऐसे साधक जाति और कुल के आधार से अपनी आजीविका चलाने लगते हैं, प्रसिद्धि और सम्मान पाने को लालायित रहते हैं ।
और कुल के आधार से प्रसिद्धि की तृष्णा उनके त्याग और वैराग्य फीका कर देती है । आभ्यन्तर परिग्रह उनके जीवन में आ जाता है, जिससे वे धन के परिग्रही से भी बढ़कर प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के परिग्रही बन जाते हैं ।
बल, लाभ, ऐश्वर्य आदि का अभिमान भी बाधक
बल का अभिमान भी साधना में घातक है । बलमद में आकर साधक कई बार हिंसा पर उतारू हो जाता है । निर्बल को सताने - दबाने की अपेक्षा उसे सहारा देकर बलवान् बनाना, आत्मबली बनाकर साधना दृढ़ करना, बलवान् साधक का कर्तव्य है ।
इसी प्रकार लाभमद एवं ऐश्वर्यमद भी साधना के मार्ग में अवरोधक हैं। मनुष्य धन, यश या साधनों की प्रचुरता होने पर अभिमान में आकर दूसरों का अपमान कर बैठता है, उन्हें नीचा दिखाता है, यहाँ तक कि उन्हें दबाता है, सताता है, परेशान कर डालता है । अतः ये मद भी मानसिक और सामाजिक हिंसा के कारण बन जाते हैं ।