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५० अमर दीप
रस्सी से बंधे हुए पक्षी के लिए विधि ही बलवान है । अर्थात् - इन सब की सफलता और शान्ति भाग्य ही निर्भर है ।
निष्कर्ष यह है कि इच्छाकाम भी आत्मा का बहुत बड़ा शत्रु है । साधक की इच्छा एक प्रकार की वृत्ति है। इच्छा की पूर्ति में सुख की कल्पना मृगमरीचिका जैसी है । यह आत्मा की बद्धदशा है, जो इच्छाकाम एवं मदनकाम के पाश में ऐसा जकड़ देती है कि मनुष्य उसकी पकड़ से निकल नहीं सकता । ऐसा व्यक्ति इच्छा या वृत्ति पर विजय प्राप्त करने के बदले बार-बार पराजित होता है ।
इच्छाओं और वृत्तियों का गुलाम सारे जगत् का गुलाम है । आशा के पाश में बंधे हुए मानव की दशा भी सैंकड़ों बंधनों से बंधे हुए अश्व की सी हो जाती है । न वह इस ओर हिल सकता है, और न ही उस ओर ।
हमारी आत्मा में अनेक प्रकार की अशुभवृत्तियाँ पड़ी हैं, काम की, क्रोध की, लोभ की, माया की, अहंकार की, ऐश-आराम की, भोग-विलास की, पंचेन्द्रिय विषयभोगों की एवं स्वच्छन्दाचार की । ये और ऐसी अनेकों वृत्तियाँ आप पर हावी हो जाती हैं, आपको मनचाहा नचाती हैं ।
पद-पद पर आपको ये वृत्तियाँ तंग करती हैं । इन वृत्तियों ने आत्मा को ऐसा दबा रखा है कि मनुष्य प्रायः इनकी दासता करता है । इन्से बार-बार पराजित होकर भी व्यक्ति भूल जाता है, उसे भान भी नहीं रहता । इन वृत्तियों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि उनकी तुलना में 'पाकिस्तान' या 'चीन' की लड़ाई कुछ भी नहीं है । अपने चक्रव्यूह में ये फँसाती रहती हैं । मनुष्य बार-बार इनके सामने हार खा जाता है । ये वृत्तियाँ ही साधक की सबसे बड़ी शत्रु हैं, उसके आत्म-विकास को रोकने वाली हैं ।
इसीलिए नमिराजर्षि ने वृत्तियों से सीधी लड़ने की बात न कहकर इन क्रोधादि वृत्तियों से युक्त आत्मा से लड़ने की बात कही है। उन्होंने कहा
पंचेंद्रियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ॥
- पाँचों इन्द्रियों के ( राग-द्व ेष-युक्त) विषय, क्रोध, मान, माया तथा लोभ से युक्त आत्मा को जीतना बहुत ही दुर्लभ है । वास्तव में एक आत्मा को जीत लेने पर सबको जीत लिया समझो ।
प्रायः मनुष्यों का और कच्चे साधकों का भी सारा जीवन इन वृत्तियों, कषायों या विषयों की गुलामी में जाता है। यह जीव जरा भी